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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां इसलिये परमाणुओंका छोड़कर अवयवीको भिन्न नहीं मानना चाहिये । पंडित अशोकने अवयववादकी पुष्टिके लिये 'अवयविनिराकरण' नामक ग्रंथ लिखा है।
४. विशेषवाद-नैयायिक सामान्यको एक, नित्य और व्यापी मानते हैं। बौद्धोंका मत है कि विशेषको छोड़कर सामान्य कोई भिन्न वस्तु नहीं है । सम्पूर्ण क्षणिक पदार्थोंका ज्ञान उनके असाधारण रूपसे ही होता है, इसलिये सम्पूर्ण पदार्थ स्वलक्षण हैं, अर्थात् पदार्थोंका सामान्य रूपसे ज्ञान नहीं होता। जिस समय हम पांच उंगलियोंका ज्ञान करते हैं, उस समय पांच उंगलियोंरूप विशेषको छोड़कर अंगुलित्व कोई भिन्न जाति नहीं मालूम होती। इसी प्रकार गौको जानते समय गौके वर्ण, आकार आदि विशेष ज्ञानको छोड़कर गोत्व सामान्यका भिन्न ज्ञान नहीं होता, अतएव विशेषको छोड़कर सामान्यको भिन्न वस्तु नहीं मानना चाहिये । क्योंकि विशेषमें ही वस्तुका अर्थक्रियाकारित्व लक्षण ठीक-ठीक घटता है। वेदान्तियोंके मतमें भी जातिका प्रत्यक्ष अथवा अनुमानसे ज्ञान नहीं माना गया, अतएव सामान्य भिन्न पदार्थ नहीं है।
५. अपोहवाद-जिससे दूसरेकी व्यावत्ति की जाय, उसे अपोह कहते हैं ( अन्योऽपोह्यते व्यावय॑ते अनेन )। बौद्ध लोग अत्यन्त व्यावृत्त परस्पर विलक्षण स्वलक्षणोंमें अनुवृत्ति प्रत्यय करनेवाले सामान्यको नहीं मानते, यह कहा जा चुका है । वौद्धोंकी मान्यता है कि जिस समय हमें किसी शब्दका ज्ञान होता है, उस समय उस शब्दसे पदार्थोंका अस्ति और नास्ति दोनों रूपसे ज्ञान होता है। उदाहरणके लिये, जिस समय हमें गौ शब्दका ज्ञान होता है, उस समय एक साथ ही गौके अस्तित्व और गौके अतिरिक्त अन्य पदार्थों के नास्तित्व रूपका ज्ञान होता है। इसलिये वौद्धोंके मतमें अतघ्यावृत्ति ( अपोह ) ही शब्दार्थ माना जाता है। पंडित अशोकने अपोहवादपर 'अपोहसिद्धि' नामक स्वतंत्र ग्रंथ लिखा है। मीमांसाश्लोकवात्तिकमें भी अपोहवादपर एक अध्याय है।
शून्यवाद शून्यवादको माध्यमिकवाद अथवा नैरात्म्यवाद भी कहते हैं। माध्यमिक लोगोंका कथन है कि पदार्थोंका न निरोध होता है, न उत्पाद होता है, न पदार्थोंका उच्छेद होता है, न पदार्थ नित्य हैं, न पदार्थों में अनेकता है, न एकता है, और न पदार्थोंमें गमन होता है, और न आगमन होता है। अतएव सम्पूर्ण धर्म मायाके समान होनेसे निस्स्वभाव है। जो जिसका स्वभाव होता है, वह उससे कभी पृथक् नहीं होता, और वह किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता। परन्तु हम जितने पदार्थ देखते हैं, वे सब अपनी-अपनी हेतुप्रत्यय-सामग्रीसे उत्पन्न होते हैं, और अपनी योग्य सामग्रीके अभावमें नहीं होते। इसलिये जो लोग स्वभावसे पदार्थोंको भावरूप मानते हैं, वे लोग अहेतु-प्रत्ययसे पदार्थोंकी उत्पत्ति स्वीकार करना चाहते हैं। अतएव सम्पूर्ण पदार्थ परस्पर सापेक्ष हैं, कोई भी पदार्थ सर्वथा निरपेक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। अतएव हम
१. प्रत्यक्षभासि धर्मसु न पंचस्वंगुलीषु स्थितं
सामान्यं प्रतिभासते न च विकल्पाकारबुद्धौ तथा । ता एव स्फुटमूर्तयोऽत्र हि विभासन्ते न जातिस्ततः सादृश्यभ्रमकारणो पुनरिमावेकोपलब्धध्वनी ॥
पंडित अशोक, सामान्यदूषणदिकप्रसारिता, पृ. १०२। २. देखिये पीछे, पृ. १२३-१२४ । ३. अनिरुद्धमनुत्पादमनुच्छेदमशाश्वतं ।
अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम् ।। माध्यमिकवृत्ति प्रत्ययपरीक्षा । ४. हेतुप्रत्ययं अपेक्ष्य वस्तुनः स्वभावता न इतरथा।