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________________ ३०४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां बातें मिलती हैं । वैदिक और जैन शास्त्रोंमें भी उक्त सम्प्रदायोंमें सर्वास्तिवादी, सौत्रांतिक और आर्यसमितीय (वैभाषिक ) नामके बौद्ध सम्प्रदायोंको छोड़कर अन्य सम्प्रदायोंका उल्लेख नहीं मिलता। सौत्रान्तिक । ये लोग टीकाओंकी अपेक्षा बुद्धके सूत्रोंको अधिक महत्व देनेके कारण सौत्रांतिक कहे जाते हैं । सौत्रांतिक लोग सर्वास्तिवादियों ( वैभाषिकों) की तरह बाह्य जगतके अस्तित्वको मानते हैं और समस्त पदार्थों को बाहय और अन्तरके भेदसे दो विभागोंमें विभक्त करते हैं। बाह्य पदार्थ भौतिक रूप, और आन्तर पदार्थ चित्त-चैत्त रूप होते हैं। "सौत्रांतिकोंके मतमें पांच स्कन्धोंको छोड़कर आत्मा कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। पाँच स्कंध ही परलोक जाते हैं। अतीत, अनागत, सहेतुक विनाश, आकाश और पुद्गल (नित्य और व्यापक आत्मा) ये पांच संज्ञामात्र, प्रतिज्ञामात्र, संवृतिमात्र, और व्यवहारमात्र हैं। सौत्रान्तिकोंके मतमें पदार्थोंका ज्ञान प्रत्यक्षसे न होकर ज्ञानके आकारकी अन्यथानुपत्ति रूप अनुमानसे होता है। साकार ज्ञान प्रमाण होता है । सम्पूर्ण संस्कार क्षणिक होते हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्शके परमाणु तथा ज्ञान प्रत्येक क्षण नष्ट होते हैं । अन्यापोह ( अन्य व्यावृत्ति) ही शब्दका अर्थ हैं। तदुत्पत्ति और तदाकारतासे पदार्थोंका ज्ञान होता है। नैरात्म्य भावनासे जिस समय ज्ञान-सन्तानका उच्छेद हो जाता है, उस समय निर्वाण होता है।"१ वसुबंधुके अभिधर्मकोशके अनुसार सौत्रांतिक लोग वर्तमान, और जिनसे अभी फल उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसी भूत वस्तुको अस्ति रूप, तथा भविष्य और जिनसे फल उत्पन्न हो चुका है, ऐसी भूत वस्तुको नास्ति रूप मानते हैं । सौत्रांतिक लोगोंके इस सिद्धांतको माननेवाले धर्मत्राता, घोष, वसुमित्र और बुद्धदेव ये चार विद्वान मुख्य समझे जाते हैं। ये लोग क्रमसे भावपरिणाम, लक्षणपरिणाम, अवस्थापरिणाम और अपेक्षापरिणामको मानते हैं। धर्मत्राता (१०० ई.)-भाव-परिणामवादी धर्मत्राताका मत है कि जिस प्रकार सुवर्णके कटक, कुण्डल आदि गुणोंमें ही परिवर्तन होता है, स्वयं सुवर्ण द्रव्यमें कोई परिवर्तन नहीं होता, इसी तरह वस्तुका धर्म भविष्य पर्यायको छोड़कर वर्तमान रूप होता है, और वर्तमान भावको छोड़कर अतीत रूप होता है, परन्तु वास्तवमें स्वयं द्रव्यमें कोई परिवर्तन नहीं होता'। धर्मत्राताको कनिष्ककी परिषदके मुख्य सदस्य वसुमित्रका मामा कहा जाता है। धर्मत्राताने बुद्ध भगवानके मुखसे कहे हुए एक हजार श्लोकोंका खुला रहता है। इस सम्प्रदायके अनुयायी बुद्धको देवाधिदेव मानकर बुद्धकी भक्ति करते हैं। महायान सम्प्रदायमें प्रत्येक पदार्थको निःस्वभाव और अनिर्वाच्य कहकर तत्त्वोंका दार्शनिक रीतिसे तलस्पर्शी विचार किया गया है। सौत्रांतिक और वैभाषिक हीनयान, और विज्ञानवाद और शून्यवाद महायान सम्प्रदायकी शाखायें हैं। जापानी विद्वान् यामाकामी सोगेन ( Yamakami Sogen ) के मतानुसार बुद्धके निर्वाणके तीन सौ बरस बाद वैभाषिक, चार सौ बरस बाद सौत्रान्तिक, तथा पांच सौ बरस बाद माध्यमिक और ईसाकी तीसरी शताब्दिमें विज्ञानवाद सिद्धान्तोंकी स्थापना हुई। प्रो. ध्रुवका मत है, कि असंग और वसुबंधुके पूर्व भी विज्ञानवादका सिद्धान्त मौजूद था, इसलिये मध्यमवादके पहले विज्ञानवादको मानकर बादमें माध्यमिकवादकी उत्पत्ति मानना चाहिये । देखिये प्रोफेसर ध्रुव-स्याद्वादमञ्जरी पृ० ७०-२५ । १. गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चय-टीका । २. इसका रशियन विद्वान प्रो. शर्बाट्स्की ( Stchertatsky ) ने अंग्रेजीमें अनुवाद किया है। ३. धर्मस्याध्वसु वर्तमानस्य भावान्यथात्वमेव केवलं न तु द्रव्यस्येति । यथा सुवर्णद्रव्यस्य कटककेयूर कुण्डलाद्यभिधाननिमित्तस्य गुणस्यान्यथात्वं न सुवर्णस्य, तथा धर्मस्यानागतादिभावादन्यथात्वम् । तत्त्वसंग्रहपंजिका पु०५०४ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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