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बौद्ध परिशिष्ट (ख) (श्लोक १६ से १९ तक)
वौद्ध दर्शन "बौद्ध दर्शनको सुगत दर्शन भी कहते हैं। बौद्ध लोगोंने विपश्यी, शिखी, विश्वभू, क्रकुच्छन्द, काञ्चन, काश्यप और शाक्यसिंह ये सात सुगत माने हैं। सुगतको तीर्थकर, बुद्ध अथवा धर्मधातु नामसे भी कहा जाता है । वुद्धोंके कण्ठ तीन रेखाओंसे चिह्नित होते हैं । अन्तिम बुद्धने मगध देशमें कपिलवस्तु नामक ग्राममें जन्म लिया था। इनकी माताका नाम मायादेवी और पिताका नाम शुद्धोदन था। वौद्ध लोग बुद्ध भगवान्को सर्वज्ञ कहते हैं । बुद्धने दुःख, समुदय ( दुःखका कारण ), मार्ग और निरोध (मोक्ष ) इन चार आर्यसत्योंका उपदेश दिया है। बौद्ध मतमें पांच इन्द्रियां और शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पांच विषय, मन और धर्मायतन ( शरीर ) ये सब मिलाकर बारह आयतन माने गये हैं। वौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको मानते हैं। बौद्ध लोग आत्माको न मानकर ज्ञानको हो स्वीकार करते हैं। इनके मतमें क्षण-क्षणमें नाश होनेवाली संतानको ही एक भवसे दूसरे भवमें जानेवाली मान गया है। बौद्ध साधु चमर रखते हैं, मुण्डन कराते हैं, चमड़ेका आसन और कमण्डलु रखते हैं, तथा धुंटी तक गेरुआ रंगका वस्त्र पहिनते हैं। ये लोग स्नान आदि शौच क्रिया विशेष करते हैं । बौद्ध साधु भिक्षा पात्रमें आये हुए मांसको भी शुद्ध समझकर भक्षण कर लेते हैं। ये लोग जीवोंकी दया पालनेके लिये भूमिको बुहारकर चलते है, और ब्रह्मचर्य आदि क्रियामें खूब दृढ़ होते हैं। वौद्ध मतमें धर्म, बुद्ध और संघ ये तीन रत्न, और सम्पूर्ण विघ्नोंको नाश करनेवाली ताराको देवी स्वीकार किया गया है। वैभापिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक ये बौद्धोंके चार भेद हैं।२॥
बौद्धोंके मुख्य सम्प्रदाय बुद्धके निर्वाण जानेके वाद संघमें कलहका आरम्भ हुआ, और वुद्ध-निर्वाणके सौ वर्ष पश्चात् ईसवी सन् पूर्व ४०० में वैशाली में एक परिषद्की आयोजना की गई। इस परिषद्ध्र महासंधिक मूल महासंधिक, एकव्यवहारिक, लोकोत्तरवादी, कुकुल्लिक, बहुश्रुतीय, प्रज्ञप्तिवादो, चैत्तिक, अपरशैल और उत्तरशैल इन नौ शाखाओंमें विभक्त हो गये। इधर थेरवादी भी निम्न ग्यारह मुख्य शाखाओंमें बंट गये-हैमवत, सर्वास्तिवाद, धर्मगुप्तिक, महीशासक, काश्यपीय, सोत्रांतिक, वात्सीपुत्रीय, धर्मोत्तरीय, भद्रयानीय, सम्मितीय, और छन्नागरिक । थेरवादियों और महासंघिकोंके उक्त सम्प्रदायोंके सिद्धांतोंके विपयमें बहुत कम ज्ञातव्य १. पाली ग्रन्थों में कहीं आठ, कहीं सोलह, और कहीं पच्चीस बुद्धोंके नाम आते हैं। देखिये राजवाड़े__ दीघनिकाय भाग २, मराठी भाषांतर, पृ० ४६ । २. देखिये गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चय-टीका और राजशेखरका षड्दर्शनसमुच्चय । ३. वसुमित्रने इन बीस भेदोंको हीनयान सम्प्रदायकी शाखा कहकर उल्लेख किया है। परन्तु आगे चलकर
ये महासंघिक और थेरवाद सम्प्रदाय क्रमसे हीनयान और महायान कहे जाने लगे। हीनयानी केवल अपने ही निर्वाणके लिये प्रयत्न करते हैं और यहाँ अन्य मनुष्योंकी तरह बुद्धको भी मनुष्य ही माना गया है। यहाँ 'सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक है, पंच स्कंधोंका क्षय हो जाना निर्वाण है,' इसके आगे सिद्धान्तोंका दार्शनिक विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। महायान सम्प्रदायके अनुयायी अनन्त काल तक प्राणियोंके मोक्षके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। निर्वाणके बाद भी बुद्धकी प्रवृत्ति संसारके निर्वाणके लिये बराबर जारी रहती है। यहां गृहस्थमें रहकर भी बिना किसी वर्णभेदके प्राणीमात्रके लिये निर्वाणका द्वार सदा