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________________ 52 ग्रन्थ और ग्रन्थकार शास्त्रोंके पढ़ जानेसे भी कोई लाभ नहीं।"१ नि:सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है, पह राग-द्वेपरूप आत्माके विकारों पर विजय प्राप्त करनेका सतत प्रयत्न करता है । वह दूसरोंके सिद्धांतोंको आदरकी दृष्टिसे देखता है, थोर मध्यस्थ भावसे सम्पूर्ण विरोधोंका समन्वय करता है । सिद्धसेन दिवाकरने वेद, सांख्य, न्यायवैशेपिक, वौद्ध आदि दर्शनोंपर द्वात्रिंशिकाओंकी रचना करके, और हरिभद्रसूरिने षड्दर्शनसमुच्चयों छह दर्शनोंको निष्पक्ष समालोचना करके इसी उदार वृत्तिका परिचय दिया है। मल्लवादि, हरिभद्रसूरि, 'रमशेखर, पं० आशाधर, उ. यशोविजय आदि अनेक जैन विद्वानोंने वैदिक और वौद्ध ग्रंथोंपर टीकाटिप्पणियां लिखकर अपनी गुणग्राहिता, समन्वयवृत्ति और हृदयको विशालताको स्पष्टरूपसे प्रमाणित किया है। वास्तवमें देखा जाय तो सत्य एक है तथा वैदिक, जैन और बौद्ध दर्शनों में कोई परस्पर विरोध नहीं। प्रत्येक दार्शनिक भिन्न-भिन्न देश और कालकी परिस्थितिके अनुसार सत्यके केवल अंश मात्रको ग्रहण करता है। वैदिक धर्म व्यवहारप्रधान है, वौद्ध धर्मको श्रवणप्रधान, और जैनधर्मको कर्तव्यप्रधान कहा जा सकता है । एक दर्शन कर्म, उपासना और ज्ञानको मोक्षका प्रधान कारण कहता है; दूसरा शील, समाधि और प्रज्ञाको; तथा तीसरा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको मोक्ष प्रधानका कारण मानता है, परन्तु ध्येय सवका एक हो है। जिस प्रकार सरल और टेढ़े मार्गसे जानेवाली भिन्न-भिन्न नदियां अन्तमें जाकर एक ही समुद्र में मिलती है, उसी तरह भिन्न-भिन्न रुचियोंके कारण उद्भव होनेवाले समस्त दर्शन एक ही पूर्ण सत्यमें समाविष्ट हो जाते है।४ पड्दर्शनोंको जिनेन्द्र के अंग कहकर परमयोगी आनंदघनजीने आनन्दधनचीबीसीमें इस भावको निम्न रूप में व्यक्त किया है षट्दरसण जिन अंग भणीजे । न्याय षडंग जो साधे रे । नमिजिनवरना चरण उपासक । षट्दर्शन आराधे रे ॥ १ ॥ जिनसुर पादप पाय बखाणुं । सांख्यजोग दोय भेदें रे। आतम सत्ता विवरण करता । लहो दुग अंग अखेदें रे ॥२॥ यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ॥ ६१ ।। तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित् ।। ७० ॥ माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिध्यति ।। स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् ।। ७२ ।। माध्यस्थसहितं हकपदज्ञानमपि प्रमा। शास्त्रकोटि: वृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।।७३ ।। अध्यात्मसार । २. सुना गया है कि गुजरातमें जैन विद्वानोंकी ओरसे ब्राह्मणोंके वेदको टापनानेका भी प्रयत्न हुआ था। श्रोतव्यो सौगतो धर्मः कर्तव्यः पुनराहतः।। वैदिको व्यवहर्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ।। हरिभद्र ॥ त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति । प्रभिन्ने प्रस्थाने परभिदमतः पथ्यमिति च । रूचीनां वैचित्र्यात् ऋजुकुटिलनानापथजुषां । नृणामेको गमयत् त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ शिवमहिम्र स्तोत्र ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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