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________________ जैनदर्शन में स्याद्वादका स्थान 31 * बेत्ता प्रो. विलियम जेम्स ( W. James ) ने भी लिखा है, हमारी अनेक दुनिया है। साधारण मनुष्य इन सव दुनियाओंका एक दूसरेसे असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूपसे ज्ञान करता है। पूर्ण तस्ययेता यही है, जो सम्पूर्ण दुनियाओंसे एक दूसरेसे सम्बन्ध और अपेक्षित रूपमें जानता है । इसी प्रकार के विचार पेरी (Perry ), नैयायिक जोसेफ ( Joseph ) एडमन्ड होम्स ( Edmund Holms) प्रभूति विद्वानोंने प्रकट किये है ४ । 7 , स्याद्वाद और समन्वय दृष्टि-स्माद्वाद सम्पूर्ण जैनेवर दर्शनोंका समन्वय करता है । जैन दर्शनकारोंका कथन है कि सम्पूर्ण दर्शन नयवादमें गर्भित हो जाते है, अतएव सम्पूर्ण दर्शन नयकी अपेक्षा से सत्य है। उदाहरण के लिये काजूसूत्रनयकी अपेक्षा बौद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा वेदान्त, नैगमनयकी अपेक्षा न्याय-वैशेषिक, शब्दयकी अपेक्षा शब्दब्रह्मवादी तथा व्यवहारनयकी अपेक्षा चार्वाक दर्शनोंको सत्य कहा जा सकता" है । ये रूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्ययत्व रूप कहे जाते हैं जिस प्रकार भिन्नभिन्न मणियोंके एकत्र गूंथे जानेसे सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह जिस सयय भिन्न-भिन्न दर्शन सापेक्ष वृत्ति धारण कर एक होते है, उस समय ये जैन दर्शन कहे जाते हैं । अतएव जिस प्रकार धन, धान्य आदि वस्तुओंके लिए विवाद करनेवाले पुरुषोंको कोई साधु पुरुष समझा बुझाकर शांत कर देता है, उसी तरह स्याद्वाद परस्पर एक दूसरे के ऊपर आक्रमण करनेवाले दर्शनोंको सापेक्ष सत्य मानकर सबका समन्वय करता है । इसीलिये जैन विद्वानोंने जिन भगवान के वचनोंको 'मिथ्यादर्शनों का समूह मानकर' अमृतका सार बताया हैं । उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दोंमें, “सच्चा अनेकांतवादी किसी भी दर्शनसे द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकारसे वात्सल्य दृष्टिसे देखता है, जैसे कोई पिता अपने पुत्रोंको देखता है । क्योंकि अनेकान्तवादीको न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जानेका अधिकारी वही है, जो स्याद्वादका अवलंबन लेकर सम्पूर्ण दर्शनोंमें समान भाव रखता है। वास्तवमे माध्यस्य भाव हो शास्त्रोंका गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है। माध्यस्थ भाव रहनेपर शास्त्रोंके एक पदका ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों १. The Principles of Psychology, vol. 1, अ. २०, पृ. २११ । २. Present Philosophical Tendencies, Chipter on Realism. ३. Introduction to Logic, पू. १७२ ३१ 8. Let us take the antithesis of the swift and the slow. It would be nonsense to say that every movement is either swift or slow. It would be nearer the truth to say that every movement is both swift and slow, swift by comp. arison with what is slower than itself, slow by comparison with what is swifter than itself. In tht Quest of Ideal, पृ. २१ । 'स्याद्वादपर एक ऐतिहासिक दृष्टि' तथा 'स्याद्वादका जनेतर साहित्यमें स्थान' ये दोनों शीर्षक लेखक के विशालभारत, मार्च १९३३ के अंकमें प्रकाशित 'जनदर्शन में अनेकान्तपद्धतिका विकासक्रम' नामक लेखके आधारसे लिखे गये हैं । वह लेख The Hisory and Development of Anekahtaveda in Jain philosophy के नामसे पूनासे प्रकाशित होनेवाले Review of Philosophy and Religion, मार्च १९३५ के अंक अंग्रेजीमें भी प्रकाशित हुआ है। ६. बौद्धानामृनुसूत्रतो मतमभूद्देदान्तिनां संग्रहात् । सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः ॥ शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैगुंफितां । जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते । अध्यात्मसार, जिनमतिस्तुति ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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