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जैनदर्शनमें स्याद्वादका स्थान
भेद अभेद सुगत मीमांसक । जिनवर दोय कर भारी रे। लोकालोक अवलंबन भजिये । गुरुगमथी अवधारी रे ॥३॥ लोकायतिक कूख जिनवरनी । अंशविचार जो कीजे । तत्त्वविचार सुधारस धारा । गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४ ॥ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग । अंतरंग बहिरंगे रे ।
अक्षरन्यास धरा आराधक । आराधे धरी संगे रे ॥ ५ ॥ इस प्रकार एकतामें विविधता और विविधता में एकताका दर्शन कर जैन आचार्योंने भारतीय संस्कृतिको समुन्नत बनाया है।