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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायां
योगकी प्रथम अवस्था कही गई है। पतंजलि योगसूत्र और व्यासभाष्यमें भूत-भविष्यत् पदार्थोंको जानना, अदृश्य हो जाना, योगी पुरुषकी निकटतामें क्रूर प्राणियोंका वैर भाव छोड़ देना, हाथी के समान बल, सम्पूर्ण भुवनका ज्ञान, भूख और प्यासका अभाव, एक शरीरका दूसरे शरीरमें प्रवेश, आकाश में विहार, वज्रसंहनन, अजरामरता आदि अनेक प्रकारकी विभूतियाँ बताई गई हैं ।
बौद्ध ग्रन्थों में आकाशमें पक्षीकी तरह उड़ना, संकल्पमात्रसे दूरकी वस्तुओंको पासमें ले आना, मनके वेगके समान गति होना, दिव्य नेत्र और दिव्य चक्षुओंसे सूक्ष्म और दूरवर्ती पदार्थोंको जानना आदि ऋद्धियोंका वर्णन मिलता है । जिस समय बोधिसत्व तुषित लोकसे च्युत होकर माताके गर्भ में आते हैं, उस समय लोक में महान प्रकाश होता है, और दससाहस्री लोकधातु कंपित होती है । बोधिसत्वके माताके गर्भ में रहने के समय चार देवपुत्र उपस्थित होकर चारों दिशाओं में बोधिसत्त्व और बोधिसत्वकी माताकी रक्षा करते हैं । बोधिसत्वकी माताको गर्भावस्थामें कोई रोग नहीं रहता । माता वोधिसत्वको अंग-प्रत्यंग सहित देखती है, और बोधिसत्वको खड़े-खड़े जन्म देती है । जिस समय श्लेष्म, रुधिर आदिसे अलिप्त वोधिसत्व गर्भसे बाहर निकलते हैं, उस समय उन्हें पहले देव लोग ग्रहण करते हैं । बोधिसत्व के उत्पन्न होने के समय आकाशसे गर्म और शीतल जलकी धाराएं गिरती हैं, जिनसे बोधिसत्व और उनकी माताका प्रक्षालन किया जाता है । उस समय आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होती है और मन्द, सुगन्ध वायु बहती है ।
ईसामसीह के जन्म के समय भी सम्पूर्ण प्रकृतिका स्तब्ध होना, देवोंका आगमन आदि वर्णन बाइबिल में आता है ।
श्लोक ५ पृ. १८ पं. ६ : एवं व्योमापि उत्पादव्ययश्रव्यात्मकः
जैनदर्शनके अनुसार जो वस्तु उत्पाद, व्यय और प्रोव्यसे युक्त हो, उसे सत् अथवा द्रव्य कहते हैं । इसीलिए जैनदर्शनकारोंने 'अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर रूप' नित्यका लक्षण स्वीकार न कर 'पदार्थके स्वरूपका नाश नहीं होना' (तद्भावाव्ययं नित्यं ) नित्यका लक्षण माना है । इस लक्षणके अनुसार जैन आचार्योंके मतसे प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और धौव्य पाये जाते हैं। आत्मा पूर्व भवको छोड़कर उत्तर भव धारण करती है, और दोनों अवस्थाओं में वह समान रूपसे रहती है, इसलिए आत्मामें उत्पाद, व्यय और धौव्य सिद्ध हो जाते हैं । पुद्गल और काल द्रव्यमें भी उत्पाद, व्यय और धौव्यका होना स्पष्ट है । जीव, पुद्गल और कालकी तरह जैन सिद्धान्त के अनुसार धर्म, अधर्म और आकाश जैसे अमूर्त द्रव्योंमें भी स्वप्रत्यय और परप्रत्ययसे उत्पाद और व्यय माना गया है । स्वप्रत्यय उत्पादको समझने के पहले कुछ जैन पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान आवश्यक है ।
१ प्रत्येक पदार्थ में अनंत गुण हैं । इन अनन्त गुणोंमें प्रत्येक गुणमें अनन्त अनन्त अविभागी गुणांश हैं। यदि द्रव्यमें गुणांश नहीं माने जाँय तो द्रव्य में छोटापन, बड़ापन आदि विभाग नहीं किया जा सकता । इन अविभागी गुणांशों को अविभागी प्रतिच्छेद कहते हैं । २ द्रव्यमें जो अनन्त गुण पाये जाते हैं, इन अनंत गुणोंमें अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व - ये छह सामान्य गुण मुख्य हैं । जिस शक्तिके निमित्तसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूपमें अथवा एक शक्ति दूसरी शक्तिरूपमें नहीं बदलती, उसे अगुरुलघु गुण कहते हैं । ३ अविभागी प्रतिच्छेदों के छह प्रकारसे कम होने और बढ़नेको छहगुणी हानिवृद्धि कहते हैं । अनंत
१. पतंजलि — योगसूत्र विभूतिपाद; तथा देखिये यशोविजय योगमाहात्म्यद्वात्रिंशिका |
२. अभिधर्मकोश ७-४० से आगे ।
३. मज्झिमनिकाय -अच्छरियधम्मसुत्त, पृ० ५१० राहुल सांकृत्यायन ; अश्वघोष - बुद्धचरित सर्ग १; तथा देखिये निदानकथा; ललितविस्तर आदि ।