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स्याद्वाममञ्जरी ( परिशिष्ट )
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भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, और अनंत गुणवृद्धि; तथा अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि और अनंत गुणहानि-यह षट्स्थानपतित हानिवृद्धि' कही जाती है।
जिस समय धर्म, अधर्म और आकाशमें अपने-अपने अगुरुलघु गुणके अविभागी प्रतिच्छेदोंमें उक्त छह प्रकारको हानि-वृद्धिके द्वारा परिणमन होता है, उस समय धर्म, अधर्म और आकाशमें उत्पाद और व्यय होता है । जिस समय धर्म, अधर्म और आकाशमें अगुरुलघु गुणकी पूर्व अवस्थाका त्याग होता है, उस समय व्यय, और जिस समय उत्तर अवस्थाकी उत्पत्ति होती है, उस समय उत्पाद होता है। तथा द्रव्यको अपेक्षा धर्म, अधर्म और आकाश सदा निष्क्रिय और नित्य है, इसलिये इनमें ध्रौव्य रहता है । धर्म आदि द्रव्योंमें उत्पाद और व्यय अपने-अपने अगुरुलघु गुणके परिणमनसे होता है, इसलिये इसे स्वप्रत्यय उत्पाद कहते हैं। जिस समय स्वयं अथवा किसी दूसरेके निमित्तसे जीव और पुद्गल धर्म, अधर्म और आकाशके एक प्रदेशको छोड़कर दूसरे प्रदेशके साथ संबद्ध होते हैं, उस समय धर्म आदि द्रव्योंमें परप्रत्यय उत्पाद और व्यय कहा जाता है।
सिद्धसेन दिवाकरने सन्मतितर्कमें उत्पाद और व्ययके प्रायोगिक (प्रयत्नजन्य ) और वैनसिक (स्वाभाविक ) दो भेद किये हैं। प्रयत्नजन्य उत्पादमें भिन्न-भिन्न अवयवोंके मिलनेसे पदार्थोंका समुदाय रूप उत्पाद होता है, इसलिये इसे समुदायवाद कहते हैं । यह उत्पाद किसी एक द्रव्यके आश्रयसे नहीं होता, इसलिये यह अपरिशुद्ध नामसे भी कहा जाता है । सामुदायिक उत्पादकी तरह व्यय भी सामुदायिक होता है । सामुदायिक उत्पाद और व्यय मूर्त द्रव्योंमें ही होते हैं । वैनसिक उत्पाद और व्ययके दो भेद हैं-सामुदायिक
और ऐकत्विक । बादल आदिमें जो बिना प्रयत्नके उत्पत्ति और नाश होता है, उसे वैनसिक समुदयकृत उत्पाद-व्यय कहते हैं । तथा धर्म, अधर्म और आकाश अमूर्त द्रव्योंमें दूसरे द्रव्योंके साथ मिलकर स्कंध रूप धारण किये विना जो उत्पाद और व्यय होता है, उसे वैनसिक ऐकत्विक उत्पाद-व्यय कहते हैं। धर्म, अधर्म और आकाशमें यह उत्पाद-व्यय अनेकांतसे परनिमित्तक होता है ।।
श्लोक ६ पृ.३१ पं. १२ : अपुनर्बन्ध
"जो जीव मिथ्यात्वको छोड़नेने लिये तत्पर और सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिये अभिमुख होता है," उसे अपुनबंधक कहते हैं । अपुनबंधकके कृपणता, लोभ, याञ्चा, दीनता, मात्सर्य, भय, माया और मूर्खताइन भवानन्दी दोषोंके नष्ट होनेपर शुक्ल पक्षके चन्द्रमाके समान औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणोंमें वृद्धि होती जाती है । अपुनर्बधकके गुरु, देव आदिका पूजन, सदाचार, तप और मुक्तिसे अद्वेष रूप 'पूर्वसेवा' मुख्य रूपसे होती है । अपुनबंधक जीव, शान्तचित्त और क्रोध आदिसे रहित होते है, तथा जिस तरह भोगी पुरुष सदा अपनी स्त्रीका चिन्तन करता रहता है, उसी तरह वे सतत संसारके स्वभावका विचार करते रहते हैं। उसके कुटुम्ब आदिमें प्रवृत्ति करते रहनेपर भी उसकी प्रवृत्तियां बंधका कारण नहीं होती।
१. षट्स्थानपतित हानिवृद्धिके स्पष्टीकरणके लिये गोम्मटसार जीवकांड; प्रवचनसारोद्धार गा. ४३२ द्वा.
२६०; पं. गोपालदासजी कृत जैनसिद्धांतदर्पण आदि ग्रन्थ देखने चाहिये। २. क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽपि एषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते । तद्यथा द्विविधः उत्पादः स्वनिमित्तः
परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्तावत् अनंतानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया
वृद्धचा हान्या च वर्तमानानां स्वभावादेषामुत्पादो व्ययश्च । सर्वार्थसिद्धि पृ० १५१ । ३. देखिये सन्मतितर्क ३-३२,३३; द्रव्यानुयोगतर्कणा ९-२४,२५; शास्त्रावार्तासमुच्चय ७-१ यशोविजय
टीका; तत्त्वार्थभाष्य ५-२९ टीका पृ. ३८३-५ ।