________________
स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट )
श्लो. १ पृ. ६ पं. ६ : अतिशय -
सहज अतिशय, कर्मक्षयज अतिशय ओर देवकृत अतिशय - ये भगवान् के तीन मूल अतिशय माने गये हैं । इन तीन अतिशयोंके उत्तरभेद मिलाकर अतिशयोंके कुल चौंतीस ' भेद होते हैं । श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार सहज अतिशयके चार, कर्मक्षयज अतिशय के ग्यारह, और देवकृत अतिशय उन्नीस भेद स्वीकार किये गये हैं—
सहज अतिशय
१ सुन्दर रूपवाला, सुगन्धित, नीरोग, पसीना और मल रहित शरीर ।
२ कमलके श्वासोच्छ्वास ।
३ गौके दूध के समान स्वच्छ और दुर्गन्ध रहित मांस और रुधिर । ४ चर्मचक्षुओंसे आहार और नीहारका न दिखना ।
कर्मक्षयज अतिशय
१ योजन मात्र समवशरण में कोडाकोड मनुष्य, देव और तिर्यंचों
का समा जाना ।
समान सुगन्धित २ एक योजन तक फैलनेवाली
भगवान्की अर्धमागधी वाणीका मनुष्य तिर्यञ्च और देवताओं द्वारा अपनो अपनो भाषा में समझ लेना ।
३ सूर्यप्रभासे भी तेज सिरके पोछे भामंडलका होना ।
८ चतुर्मुख उपदेश ।
४ सौ योजन तक रोगका न ९ चैत्य अशोक वृक्ष ।
रहना ।
५ वैरका न रहना ।
६ इति अर्थात् धान्य आदिको नाश करनेवाले चूहों आदिका अभाव । ७ महामारी आदिका न होना । ८ अतिवृष्टि न होना ।
९ अनावृष्टि न होना ।
२८५
देवकृत अतिशय
१ आकाशमें धर्मचक्रका होना । २ आकाश में चमरोंका होना । ३ आकाश में पादपीठ उज्ज्वल सिंहासन |
सहित
४ आकाशमें तीन छत्र । ५ आकाशमें रत्नमय धर्मध्वज । ६ सुवर्ण कमलोंपर चलना । ७ समवशरण में रत्न, सुवर्ण और चांदी के तीन परकोट ।
१० कण्टकों का अत्रोमुख होना ।
११ वृक्षोंका झुकना । १२ दुन्दुभि बजना । १३ अनुकूल वायु ।
१४ पक्षियों का प्रदक्षिणा देना । १५ गंधोदककी वृष्टि ।
१६ पांच वर्णोंके पुष्पोंकी वृष्टि ।
१० दुर्भिक्ष न पड़ना ।
१७ नख और केशोंका नहीं बढ़ना ।
११ स्वचक्र और परचक्रका भय न १८ कमसे कम एक कोटि देवोंका पास में रहना ।
होना ।
१९ ऋतुओंका अनुकूल होना ।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार दस सहज अतिशय, दस कर्मक्षयज अतिशय और चौदह देवकृत अतिशय माने गये हैं । अतिशयों की मान्यतामें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके अनुसार पाठभेद पाया
है ।
जैनेतर ग्रन्थोंमें भी इस प्रकारके विचार मिलते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद् में लघुता, आरोग्य, स्थिरता, वर्णप्रसाद, स्वरकी सुन्दरता, शुभ गन्ध तथा मूत्र और मलका अल्प मात्रामें होना, यह
१. समवायांग सूत्र और कुन्दकुन्दके नियमसारमें चौंतीस अतिशयोंके नाम आते हैं । तथा देखिये जगदीश - चन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० ३४३ आदि ।
२. श्वेताश्वतर उ० २-१३ ।