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________________ ર૭૨ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां भगवान्की यथार्थवादिता यथास्थितं वस्तु दिशन्नधीश न तादृशं कौशलमाश्रितोऽसि । तुरंगशृंगाण्युपपादयद्भ्यो नमः परेभ्यो नवपण्डितेभ्यः ।। ५ ।। अर्थ-हे स्वामिन् ! आपने पदार्थोंका जैसेका तैसा वर्णन किया है, इसलिये आपने परवादियोंके समान कोई कौशल नहीं दिखाया । अतएव घोड़ेके सींगके समान असंभव पदार्थोंको जन्म देनेवाले परवाादयोंके नवीन पंडितोंको हम नमस्कार करते हैं ! भगवानमें व्यर्थकी दयालुताका अभाव जगत्यनुध्यानबलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसभं भवत्सु । किमाश्रितोऽन्यैः शरणं त्वदन्यः स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः ॥ ६ ॥ अर्थ-हे पुरुषोत्तम ! अपने उपकारके द्वारा जगतको सदा कृतार्थ करनेवाले ऐसे आपको छोड़कर अन्य वादियोंने अपने मांसका दान करके व्यर्थ ही कृपालु कहे जानेवालेकी क्यों शरण ली है ? यह समझमें नहीं आता ! ( यह कटाक्ष बुद्धके ऊपर है)। असत्वादियोंका लक्षण स्वयं कुमार्ग लपतां नु नाम प्रलम्भमन्यानपि लम्भयन्ति । सुमार्गगं तद्विदमादिशन्नमसूययान्धा अवमन्यते च ॥ ७ ॥ अर्थ-ईर्ष्यासे अन्धे पुरुष स्वयं कुमार्गका उपदेश करते हुए दूसरोंको कुमार्गमें ले जाते हैं, तथा सुमार्गमें लगे हुओंका, सुमार्गके जानकारोंका और सुमार्गके उपदेष्टाओंका अपमान करते हैं, यह महान खेद है ! भगवानके शासनका अजेयपना प्रादेशिकेभ्यः परशासनेभ्यः पराजयो यत्तव शासनस्य । खद्योतपोतद्युतिडम्वरेभ्यो विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥८॥ अर्थ-हे प्रभु ! वस्तुके अंशमात्रको ग्रहण करनेवाले अन्य दर्शनोंके द्वारा आपके मतको पराजय करना एक छोटेसे जुगुनूके प्रकाशसे सूर्यमण्डलका पराभव करनेके समान है ! भगवानके पवित्र शासनमें सन्देह अथवा विवाद करना योग्य नहीं शरण्य पुण्ये तव शासनेऽपि संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा । स्वादौ स तथ्ये स्वहिते च पथ्ये संदेग्धि वा विप्रतिपद्यते वा ॥९॥ अर्थ-हे शरणागतको आश्रय देनेवाले ! जो लोग आपके पवित्र शासनमें संदेह अथवा विवाद करते हैं, वे स्वादु, अनुकूल और पथ्य भोजनमें ही संदेह और विवाद करते हैं। कृपां वहन्तः कृपणेषु जन्तुषु स्वमांसदानेष्वपि मुक्तचेतसः । त्वदीयमप्राप्य कृतार्थकौशलं स्वतः कृपां संजनयन्त्यमेधसः ॥ द्वा० द्वात्रिंशिका १-७ । २. मिलाइये-निपत्य ददतो व्याघ्रयाः स्वकार्य कृमिसंकुलम् । देयादेयविमूढस्य दया बुद्धस्य कीदृशी ॥ हेमचन्द्र-योगशास्त्र २-१ वृत्ति। तावद्वितर्करचनांपटुभिर्वचोभिर्मेधाविनः कृतमिति स्मयमुद्वहन्ति । यावन्न ते जिनवचः स्वभिचापलास्ते सिंहानने हरिणबालकवत् पतन्ति ॥ द्वा० द्वात्रिंशिका २-११ । १.
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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