________________
अयोगव्यवच्छेदिका
२७३ अन्य आगमोंकी अप्रामाणिकता
हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः ।
नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच मस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥१०॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपके आगमके अतिरिक्त अन्य आगमोंमें हिंसा आदि असत् कर्मोंका उपदेश किया गया है। वे आगम असर्वज्ञके कहे हुए है, तथा निर्दय और दुर्बुद्धि लोगोंके द्वारा धारण किये जाते हैं. इसलिये हम उन आगमोंको प्रमाण नहीं मानते । भगवानके आगमकी प्रमाणिकता
हितोपदेशात्सकलज्ञक्लुप्तेर्मुमुक्षुसत्साधुपरिग्रहाच्च ।
पूर्वापरार्थेष्वविरोधसिद्धेस्त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् ॥११॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपका कहा हुआ आगम हितका उपदेश करता है, सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित किया हुआ है, मुमुक्षु और साधु पुरुषोंके द्वारा सेवन किया जाता है, और पूर्वापर विरोधसे रहित है, अतएव आपका आगम ही सत्पुरुपोंके द्वारा माननीय हो सकता है। भगवान्के यथार्थवाद गुणकी महत्ता
क्षिप्येत वान्यैः सदृशीक्रियेत वा तवाविपीठे लुठनं सुरेशितुः ।
इदं यथावस्थितवस्तुदेशनं परैः कथंकारमपाकरिष्यते ॥१२॥ अर्थ-हे जिनेश्वर ! भले ही अन्यवादी आपके चरणकमलोंमें इन्द्रके लोटनेकी बात न मानें, अथवा अपने इष्ट देवताओंमें भी इन्द्रके लोटनेको कल्पना करके आपकी बराबरी करें, परंतु वे लोग आप द्वारा वस्तुके यथार्थ रूपसे प्रतिपादन करनेके गुणका लोप नहीं कर सकते । भगवान्के शासनकी उपेक्षाका कारण
तदुःपमाकालखलायितं वा पचेलिमं कर्मभवानुकूलम् ।
उपेक्षते यत्तव शासनार्थमयं जनो विप्रतिपद्यते वा ॥१३॥ अर्थ हे भगवन् ! जो लोग आपके शासनकी उपेक्षा करते हैं, अथवा उसमें विवाद करते हैं, वे लोग पंचम कालके कारण ही ऐसा करते हैं, अथवा इसमें उनके अशुभ कर्मोंका उदय समझना चाहिये। केवल तपसे मोक्ष नहीं मिलता
पर सहस्राः शरदस्तपांसि युगांतरं योगमुपासतां वा । तथापि ते मार्गमनापतन्तो न मोक्ष्यमाणा अपि यान्ति मोक्षम् ॥१४॥
१. युक्त्यनुशासन ६ । आप्तमीमांसा ६ । २. आप्तमीमांसा १ से ६ कारिका । ३. काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुप्रवक्तुर्वचनाशयो वा ।
त्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥ युक्त्यनुशासन ५ । तपोभिरेकान्तशरीरपीडनैतानुबन्धः श्रुतसंपदापि वा। त्वदीयवाक्यप्रतिबोधपेलवैरवाप्यते नैव शिवं चिरादपि ॥ द्वा. द्वात्रिंशिका १.२३ । स्वच्छन्दवृत्तेर्जगतः स्वाभावादुच्चरनाचारपथेष्वदोषम् । निर्घष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्या बत विभ्रमंति ॥ युक्त्यनुशासन ३७ ॥
३५