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________________ हेमचन्द्राचार्यविरचिता अयोगव्यवच्छेदिका महावीर भगवानकी स्तुति अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् । श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूपमहं स्तुतेर्गोचरमानयामि ॥ १ ॥ अर्थ-मैं ( हेमचन्द्र ) अध्यात्मवेत्ताओंके अगम्य, पंडितोंके अनिर्वचनीय, इन्द्रिय-ज्ञानवालोंके परोक्ष, और परमात्मस्वरूप ऐसे श्रीवधमान भगवानको अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ। भगवानके गुणोंके स्तवन करनेको असमर्थतास्तुतावशक्तिस्तव योगिनां न किं गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः । इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन्न बालिशोऽप्येष जनोऽपराध्यति ॥ २॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपको स्तुति करनेमें योगी लोग भी समर्थ नहीं हैं। परन्तु असमर्थ होते हए भी योगी लोगोंने आपके गुणोंमें अनराग होने के कारण आपकी स्तुति की है। इसी प्रकार मेरे मन में भी आपके गुणोंमें दृढ़ अनुराग है, इसीलिये मेरे जैसा मूर्ख मनुष्य आपको स्तुति करता हुआ अपराधका भागी नहीं कहा जा सकता। स्तुतिकार अपनी लघुता बताते हैं क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुनै शोच्यः ॥ ३ ॥ अर्थ-कहाँ गम्भीर अर्थवाली सिद्धसेन दिवाकरको स्तुतियां, और कहाँ अशिक्षित संभाषणकी मेरी यह कला ! फिर भी जिस प्रकार बड़े-बड़े हाथियोंके मार्गपरसे जानेवाला हाथीका बच्चा मार्गभ्रष्ट होनेके कारण शोचनीय नहीं होता, उसी प्रकार यदि मैं भी सिद्धसेन जैसे महान् आचार्योंका अनुकरण करते हुए कहीं स्खलित हो जाऊँ, तो शोचनीय नहीं हूँ। आपने जिन दोषोंको नाश कर दिया है, उन्हीं दोषोंको परवादियोंके देवोंने आश्रय दिया हैजिनेन्द्र यानेव विवाधसे स्म दुरतदोषान् विविधैरुपायैः। त एव चित्रं त्वदसूययेव कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः ॥ ४ ॥ अथ-हे जिनेन्द्र ! जिन कठिन दोषोंको आपने नाना उपायोंके द्वारा नाश कर दिया है, आश्चर्य है कि उन्हीं दोषोंको दूसरे मतावलम्बियोंके गुरुओंने आपकी ईर्ष्यासे ही कृतार्थ कर लिया है। कीर्त्या महत्या भुवि वर्धमानं त्वां वर्धमान स्तुतिगोचरत्वं । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशयपाशवन्धम् ॥ युक्तयनुशासन १। गुणाम्बुधेविषमप्यजस्रं नाखण्डल: स्तोतुमलं तवर्षेः । प्रागेव मादृक्किमुतातिभक्तिर्मा बालमालापयतीदमित्थम् ॥ स्वयंभूस्तोत्र ३०, १५ । तथा भक्तामर ३-६, कल्याणमन्दिर ३-६; द्वा. द्वात्रिंशिका ५-३१ । को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणरशेषस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषरुपात्तविविधाश्रयजातगः स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ भक्तामर २७ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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