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________________ २७० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [प्रशस्ति अन्यान्यशास्त्रतरुसंगतचित्तहारिपुष्पोपमेयकतिचिन्निचितप्रमेयैः । दृब्धां मयान्तिमजिनस्तुतिवृत्तिमेनां मालामिवामलहृदो हृदये वहन्तु ॥३॥ प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमत्र यत्किंचिदुक्तं मतिमान्द्यदोषात् । मात्सर्यमुत्सार्य तदार्यचित्ताः प्रसादमाधाय विशोधयन्तु ॥ ४ ॥ उर्ध्यामेष सुधाभुजां गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारिणी यत्रेयं प्रतिभाभरादनुमिति निर्दम्भमुज्जृम्भते । किं चामी विबुधाः सुधेति वचनोद्गारं यदीयं मुदा शंसन्तःप्रथयन्ति तामतितमां संवादमेदस्विनीम् ॥५॥ नागेन्द्रगच्छगोविन्दवक्षोऽलंकारकौस्तुभाः। ते विश्ववन्द्या नन्द्यासुरुदयप्रभसूरयः॥ ६॥ युग्मम् ।। श्रीमल्लिषेणसूरिभिरकारि तत्पदगगनदिनमणिभिः। वृत्तिरियं मनुरविमितशाकाब्दे' दीपमहसि' शनौ ॥७॥ श्रीजिनप्रभसूरीणां साहाय्योद्भिन्नसौरभा। श्रुतावुत्तंसतु सतां वृत्तिः स्याद्वादमञ्जरी ॥ ८॥ विभ्राणे कलिनिर्जयाज्जिनतुलां श्रीहेमचन्द्रप्रभौ तदृब्धस्तुतिवृत्तिनिर्मितिमिषाद् भक्तिर्मया विस्तृता । निर्णेतुं गुणदूषणे निजगिरा तन्नार्थये सज्जनान् तस्यास्तत्त्वमकृत्रिमं बहुमतिः सास्त्यत्र सम्यग् यतः ॥९॥ इति टीकाकारस्य प्रशस्तिः समाप्ता ।। समाप्तम् बहुतमे शास्त्ररूपी वृक्षोंके मनोहर पुष्पोंके समान कुछ प्रमेयोंको लेकर मैंने मालाको तरह यह अन्तिम भगवान्की स्तुतिकी टीकाको रचा है । निर्मल हृदयवाले पुरुष इसे अपने मनमें धारण करें ॥३॥ यहाँ यदि मैंने बुद्धिके प्रमादसे कुछ सिद्धान्तके विरुद्ध कहा हो, तो सज्जन लोग मात्सर्य भावको छोड़ कर प्रसन्नतापूर्वक संशोधन कर लें ॥४॥ तीनों लोकोंमें व्याप्त होनेवाली जिसकी प्रतिभाको देख कर लोगोंका अनुमान है कि यह पृथ्वीपर देवताओंका गुरु जन्मा है, जिसके वचनोंको अमृत समझ कर प्रशंसा करते हुए पण्डित लोग जिसकी अविरुद्ध वाणीका विस्तार करते हैं, तथा विष्णुके वक्षस्थलमें कौस्तुभ मणिके समान नागेन्द्र गच्छको शोभित करनेवाले, ऐसे विश्वमें वन्दनीम उदयप्रभसूरि महाराज समृद्धिको प्राप्त हों ।। ५-६ ॥ उदयप्रभसूरिके पदरूपी आकाशमें सूर्यके समान श्री मल्लिषेणसूरिने दीपमालिकाके दिन शनिवारको १२१४ शक संवत्में यह टीका समाप्त की ॥७॥ । श्री जिनप्रभसूरिकी सहायतासे सुगन्धित यह स्याद्वादमञ्जरी सज्जन पुरुषोंके कानोंके आभूषण रूप हो ॥ ८॥ कलिकालके ऊपर विजय प्राप्त करनेसे जिन भगवान्के समान श्री हेमचन्द्रप्रभुकी बनायो हुई स्तुतिकी टीका बनानेके बहाने मैंने हेमचन्द्र आचार्यके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है। अतएव अपनी वाणीके गुण और दोषोंका निर्णय करनेके लिये मैं सज्जनोंसे प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि इस वाणीमें बहुतसे अकृत्रिम स्वतः उत्पन्न विचार विद्यमान हैं ॥९॥ ॥ टीकाकारकी प्रशस्ति समाप्त ।। समाप्त १. अट्टानां वामतो गतिः १२१४ मिते शाके । चतुर्दश मनवः द्वादश आदित्याः । २. दीपावल्याम् ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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