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________________ २६४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ३० "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः" ।' अन्ये त्वेवं व्याचक्षते । तथा अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् परे प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान मध्यस्थतयाङ्गीकुर्वाणो न मत्सरी । यतः कथंभूतः । पक्षपाती पक्षमेकपक्षाभिनिवेशम् पातयति तिरस्करोतीति पक्षपाती । रागस्य जीवनाशं नष्टत्वात् । अत्र च व्याख्याने मत्सरीति विधेयपदम् पूर्वस्मिंश्च पक्षपातीति विशेषः । अत्र च क्लिष्टाक्लिष्टव्याख्यानविवेको विवेकिभिः स्वयं कार्यः ।। इति काव्यार्थः ।। ३०॥ "हे नाथ, जिस प्रकार नदियां समुद्रमें जा कर मिलती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण दृष्टियों ( दर्शन ) का आपमें समावेश होता है। जिस प्रकार भिन्न नदियोंमें समुद्र नहीं रहता, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनोंमें आप नहीं रहते।" कुछ लोग इस श्लोकका दूसरा अर्थ करते हैं। अन्य दर्शन परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखनेके कारण ईर्ष्यालु हैं, परन्तु आप सम्पूर्ण नय रूप दर्शनोंको मध्यस्थ भावसे देखते हैं, अतएव ईर्ष्याल नहीं है । क्योंकि आप एक पक्षका आग्रह करके दूसरे पक्षका तिरस्कार नहीं करते हैं । पहली व्याख्यामें 'पक्षपाती' विधेय पद था, और दूसरी व्याख्यामें 'मत्सरी' विधेय पद है। इन दोनों व्याख्याओंमें सरल और कठिन व्याख्याका विवेक बुद्धिमानोंको कर लेना चाहिये । यह श्लोक का अर्थ है ॥३०॥ भावार्थ-जैन दर्शन सब दर्शनोंका समन्वय करनेवाला है। जितने वचनोंके प्रकार हो सकते हैं, उतने ही नयवाद होते हैं । अतएव सम्पूर्ण दर्शन नयवादमें गभित हो जाते हैं। जिस समय ये नयवाद एक दूसरेसे निरपेक्ष होकर वस्तुका प्रतिपादन करते हैं, उस समय ये नयवाद परसमय अर्थात् जनेतर दर्शन कहे जाते हैं। इसलिये अन्य धर्मोंका निषेध करनेवाले वक्तव्यको प्रतिपादन करनेवालेको अजैन दर्शन, और सम्पूर्ण दर्शनोंका समन्वय करनेवालेको जैन दर्शन कहते हैं। उदाहरणके लिये, नित्यत्ववादी सांख्य और अनित्यत्व बादी बौद्ध परसमय हैं, क्योंकि ये दोनों दर्शन एक दूसरेसे निरपेक्ष होकर वस्तुतत्त्वका प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन इन दोनोंका समन्वय करता है, इसलिये जैन दर्शन स्वसमय है। जिस समय परस्पर निरपेक्ष वचनोंके प्रकार नयवादोंमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है, उस समय ये नय सम्यक्त्व रूप होते हैं। जिस प्रकार धन, धान्य आदिके कारण परस्पर विवाद करनेवाले लोग किसी निष्पक्ष आदमीसे समझाये जानेपर शांत होकर परस्पर मिल जाते हैं, अथवा जिस प्रकार कोई मंत्रवादी विषके टुकड़ोंको विष रहित कर कोढ़के रोगीको अच्छा कर देता है, अथवा जिस प्रकार भिन्न-भिन्न मणियोंसे एक सुन्दर रत्नोंकी माला तैयार हो जाती है, उसी प्रकार परस्पर निरपेक्ष परसमयोंका जैन दर्शनमें समन्वय होता है। इसी १. द्वात्रिंशद्वात्रिशिकास्तोत्रे ४-१५ । यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ इति मुण्डक उ. २-८। तथा-बहुधाप्यागमैभिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः । त्वय्येव निपतन्त्योधा जाह्नवीया इवार्णवे ॥ रघुवंशे १०-११ । परस्परविरुद्धा अपि सर्वे नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं भजन्ति । एकस्य जिनसाधोर्वशवर्तित्वात् यथा नानाभिप्राय भृत्यवर्गवत् । यथा धनधान्यभूम्याद्यर्थ परस्परं विवदमाना बहवोऽपि सम्यग्न्यायवता केनाप्युदासीनेन युक्तिभिर्विवादकारणान्यपनीय मील्यन्ते । तथेह परस्परविरोधिनोऽपि नयान् जनसाधुर्विरोधं भक्त्वा एकत्र मीलयति । तथा प्रचुरविषलवा अपि प्रौढ़मंत्रवादिना निर्विषीकृत्य कुष्टादिरोगिणे दत्ता अमृतरूपत्वं प्रतिपद्यन्त एव । यशोविजयकृत नयप्रदीपे । तथा विशेषावश्यकभाष्य २२६५-७२।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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