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अन्य. यो. व्य. श्लोक ३१] त्याद्वादमञ्जरी
२६५ इत्यङ्कारं कतिपयपदार्यविवेचनद्वारेण स्वामिनो यथार्थवादाख्यं गुणमभिष्टुत्य समग्रवचनातिशयन्यावर्णने स्वस्थानानथ्यं दृष्टान्तपूर्वकमुपदर्शयन् औद्धत्यपरिहाराय भङ्ग्यन्तरतिरोहितं स्वाभिधानं च प्रकाशयन निगमनमाह
वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्तुमाशास्महे चेद् महनीयमुख्य ।
लचेम जङ्घालतया समुद्रं वहेम चन्द्रद्युतिपानतृष्णाम् ।। ३१ ।। विभव एव वैभवं । प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण् । विभोभावः कर्म चेति वा वैभवम् । वाचां वैभवं वाग्वैभवं वचनसंपत्प्रकर्पम् ।। विभोर्भाव इति पक्षे तु सर्वनयव्यापकत्वम् । विभुशब्दस्य व्यापकपर्यायतया रूढत्वान् । ते तव संबन्धिनं निखिलं कृत्स्नं विवेक्तु विचारयितु चेद् यदि वयमाशास्महे इच्छामः। हे महनीयमुख्य महनीयाः पूज्याः पञ्च परमेष्ठिनस्तेषु मुख्यः प्रधानभूतः, आद्यत्वात् तस्य संबोधनम् ।।
ननु सिद्धेभ्यो हीनगुणत्वाद् अर्हतां कथं वागतिशयशालिनामपि तेपां मुख्यत्वम् । न च हीनगुणत्वमसिद्धम् । प्रव्रज्यावसरे सिद्धेभ्यस्तेषां नमस्कारकरणश्रवणात् । “काऊण नमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे'' इति श्रुतकेवलिवचनात् । मैवम् । अर्हदुपदेशेनैव सिद्धाना
लिये जैन विद्वानोंने कहा है कि अनेकांतवादका मुख्य ध्येय सम्पूर्ण दर्शनोंको समान भावसे देखकर माध्यस्थ भाव प्राप्त करनेका है। यही वर्मवाद है, और यही शास्त्रोंका मर्म है। अतएव जिस प्रकार पिता अपने सम्पूर्ण पुत्रोंके ऊपर समभाव रखता है, उसी तरह अनेकान्तवाद सम्पूर्ण नयोंको समान भावसे देखता है।' इसलिये जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियाँ एक समुद्र में जाकर मिलती है, उसी तरह सम्पूर्ण दर्शनोंका अनेकांत दर्शनमें समावेश होता है । अतएव जैन दर्शन सब दर्शनोंका समन्वय करता है।
इस प्रकार कुछ पदार्थोंके विवेचनसे भगवानके यथार्थवाद गुणकी स्तुति करनेके पश्चात् भगवानके सम्पूर्ण वचनातिशयोंका वर्णन करनेमें अपनी असमर्थता बतलाकर प्रकारान्तरसे औद्धत्यको दूर करनेके लिये अपने वक्तव्यका उपसंहार करते हैं
श्लोकार्थ-हे पूज्य शिरोमणि ! आपके सम्पूर्ण गुणोंकी विवेचना करना वेगसे समुद्रको लांघने, अथवा चन्द्रमाको चांदनीका पान करनेकी तृष्णाके समान है।
व्याख्यार्थ-प्रज्ञा आदिसे स्वार्थमें अण् प्रत्यय होकर विभवसे वैभव शब्द बनता है। अथवा विभुके भाव और कर्मको वैभव कहते हैं। वचनके वैभवको 'वाग्वैभव' अर्थात् वचनोंकी उत्कृष्टता कहते हैं। विभु शब्दका व्यापक अर्थ करनेपर 'वाग्वैभव' शब्दका 'सम्पूर्ण नयोंमें व्यापक अर्थ करना चाहिये। पांचों परमेठियोंमें अहंत भगवान् मुख्य हैं, अतएव भगवान्को पूज्य शिरोमणि कहकर संबोधन किया है।
शङ्का-अर्हत भगवान में सिद्धोंकी अपेक्षा कम गुण हैं, अर्हत दीक्षाके समय सिद्धोंको नमस्कार करते हैं। श्रुतकेवलियोंने कहा भी है-"अहंत सिद्धोंको नमस्कार करके दीक्षा ग्रहण करते हैं।" अतएव अर्हतोंको मुख्य नहीं कहना चाहिये। समाधान-अहंत भगवानके उपदेशसे ही सिद्धोंकी पहचान होती
१. छाया-कृत्वा नमस्कारं सिद्धेभ्योऽभिग्रहं तु सोऽग्रहीत् । २. यस्य सर्वत्र समता नयेपु तनयेष्विव ।
तस्यानेकांनवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुपी । तेन स्याद्वादमालव्य सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशाविशेपेण यः पश्यति सःशास्त्रवित् ।।
यशोविजय-अध्यात्मोपनिपद् ६१,७० ।
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