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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ३०] स्याद्वादमञ्जरी २६३ व्याप्यमपि निवर्तयति इति मत्मरित्वे निवर्तमाने पक्षपातित्वमपि निवर्तत इति भावः । तव समय इति वाच्यवाचकभावलक्षणे सम्बन्धे पष्ठी। सूत्रापेक्षया गणधरकर्तृकत्वेऽपि समयस्य अर्थापेक्षया भगवत्कतृकत्वाद् वाच्यवाचकभावो न विरुध्यते। "अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहराणिउणं"' इति वचनात् । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यापञ्चः समयः। तेषां च भगवता साक्षान्मातृकापदरूपतयाभिधानात् । तथा चार्पम्-"उप्पन्ने वा विगमे वा धुवेति वा" इत्यदोषः॥ मत्सरित्वाभावमेव विशेषणद्वारेण समर्थयति । नयानशेषानविशेषमिच्छन् इति । अशेषान् समस्तान् नयान् नैगमादीन् , अविशेष निर्विशेपं यथा भवति एवम् इच्छन् आकाङ्क्षन् सवेनयात्मकत्वादनेकान्तवादस्य । यथा विशकलितानां मुक्तामणीनामेकसूत्रानुस्यूतानां हारव्यपदेशः एवं पृथगभिसन्धीनां नयानां स्याद्वादलक्षणैकसूत्रप्रोतानां श्रुताख्यप्रमाणव्यपदेश इति । ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता उच्यते। यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो विवादाद् विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपित्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तं सुहृद्यावतिष्ठन्ते । एवं च सर्वनयात्मकत्वे भगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुद्धमेव, नयरूपत्वाद् दर्शनानाम् ॥ न च वाच्यं तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यते इति । समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तासु अनुपलम्भात् । तथा च वक्तृवचनयोरैक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः ( ४ ) तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके सिद्धान्तको समय कहते हैं। उत्पाद आदिको जिन भगवान्ने 'अष्ट प्रवचनमाता' कहा है। आर्षवाक्य भी है-"उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है, और स्थिर भो रहता है। यद्यपि आगमोंके सूत्र गणधरोंके बनाये हुए होते हैं, परन्तु “अहंत अर्थका व्याख्यान करते हैं, और गणघर उसे सूत्रमें उपनिबद्ध करते हैं"-इस वचनसे अर्थकी अपेक्षासे भगवान् ही समयके रचयिता हैं। अतएव आपके साथ आगमका वाच्य-वाचक भाव बन सकता है। आपका सिद्धान्त ईर्ष्यासे रहित है, क्योंकि आप नैगम आदि सम्पूर्ण नयोंको एक समान देखते है। अनेकांत वादमें सर्वनयोंका समावेश होता है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियोंको एक सूतमे पिरो देनेसे मोतियों का सुन्दर हार बन कर तैय्यार हो जाता है, उसी तरह भिन्न-भिन्न नयोंको स्याद्वाद रूपी सूतमे पिरो देनेसे सम्पूर्ण नय 'श्रुत प्रमाण' कहे जाते हैं। शङ्का-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध है, तो उन नयोंके एकत्र मिलानेसे उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है। समाधान-जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायीके द्वारा न्याय किये जानेपर विवाद करना बन्द करके आपसमें मिल जाते हैं, वैसे हो .परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान्के शासनकी शरण लेकर 'स्यात्' शब्दसे विरोधके शान्त हो जानेपर परस्पर अत्यन्त सुहृद् भावसे एकत्र रहने लगते है। अतएव भगवान्के शासनके सर्व नय स्वरूप होनेसे भगवान्का शासन सम्पूर्ण दर्शनोंसे अविरुद्ध है, क्योंकि प्रत्येक दर्शन नय स्वरूप है। शङ्का-यदि भगवान्का शासन सर्व दर्शन स्वरूप है, तो यह शासन सब दर्शनोंमें क्यों नहीं पाया जाता? समाधान-जिस प्रकार समुद्रके अनेक नदी रूप होनेपर भी भिन्न-भिन्न नदियोंमें समुद्र नहीं पाया जाता, उसी तरह भिन्न-भिन्न दर्शनोंमें जैन दर्शन नहीं पाया जाता। वक्ता और उसके वचनोंमें अभेद मान कर सिद्धसेन दिवाकरने कहा है १. छाया-अर्थ भाषतेऽहन सूत्रं ग्रथ्नन्ति गणधरा निपुणम् । विशेषावश्यकभाष्ये १११९ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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