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________________ २६२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक ३० अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः | नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते ||३०|| प्रकर्षेण उद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति प्रवादाः । यथा येन प्रकारेण । परे भवच्छासनाद् अन्ये । प्रत्रादा दर्शनानि । मत्सरिणः अतिशायने मत्वर्थीयविधानात् साति-शयासह नताशालिनः क्रोधकषायकलुषितान्तःकरणाः सन्तः पक्षपातिनः, इतरपक्षतिरस्कारेण स्वकक्षीकृत पक्षव्यस्थापनप्रवणा वर्तन्ते । कस्माद् हेतोर्मत्सरिणः इत्याह । अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् । पच्यते व्यक्तीक्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिभिरिति पक्षः । कक्षीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः । तस्य प्रतिकूल : प्रतिपक्षः । पक्षस्य प्रतिपक्षो विरोधी पक्षः प्रतिपक्षः । तस्य भावः पक्षप्रतिपक्षभावः । अन्योऽन्यं परस्परं यः पक्षप्रतिपक्षभावः पक्षप्रतिपक्षत्वमन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावस्तस्मात् ॥ तथाहि । य एव मीमांसकानां नित्यः शब्द इति पक्षः स एव सौगातानां प्रतिपक्षः । तन्मते शब्दस्यानित्यत्वात् । य एव सौगतानामनित्यः शब्द इति पक्षः स एव मीमांसकानां प्रतिपक्षः । एवं सर्वप्रयोगेषु योज्यम् । तथा तेन प्रकारेण ते तव । सम्यक् एति गच्छति शब्दोऽमनेन इति पुन्नाम्नि घः ।” समयः संकेतः । यद्वा सम्यग् अवैपरीत्येन ईयन्ते ज्ञायन्ते जीवाजीवादयोऽर्था अनेन इति समयः सिद्धान्तः । अथवा सम्यग् अयन्ते गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन् स्वरूपे प्रतिष्ठां प्राप्नुवन्ति अस्मिन् इति समय आगमः । न पक्षपाती नैकपक्षानुरागी । पक्षपातित्वस्य हि कारणं मत्सरित्वं परप्रवादेषु उक्तम् । त्वत्समयस्य च मत्सरित्वाभावाद् न पक्षपातित्वम् । पक्षपातित्वं हि मत्सरित्वेन व्याप्तम्, व्यापकं च निवर्तमानं श्लोकार्थ - अन्यवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखनेके कारण एक दूसरेसे ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयोंको एक समान देखनेवाले आपके शास्त्रोंमें पक्षपात नहीं है । व्याख्यार्थ - जिसके द्वारा इष्ट अर्थको उत्तमतासे प्रतिपादन किया जाय, उसे प्रवाद कहते हैं । आपके शासनके अतिरिक्त अन्य दर्शन परस्पर पक्ष और प्रतिपक्षका दुराग्रह रखनेके कारण एक दूसरे के पक्षका तिरस्कार करके अपने सिद्धान्तको स्थापित करते हैं, अतएव वे लोग अत्यन्त असहनशील होनेके कारण क्रोध कषायसे युक्त होकर अपने दर्शनोंमें पक्षपात करते हैं । 'मत्सरी' शब्दमें मत्वर्थ में इन् प्रत्यय सातिशय अर्थको द्योतन करनेके लिए किया गया है । जो साध्यसे युक्त होकर हेतु आदिके द्वारा व्यक्त किया जाय, उसे पक्ष कहते हैं । जो पक्षके विरुद्ध हो, उसे प्रतिपक्ष कहते है । तथाहि — जैसे मीमांसकोंके मतमें 'शब्द नित्य है,' यह पक्ष बौद्धोंकाप्रतिपक्ष है, क्योंकि बौद्धोंके मतमें शब्द अनित्य है, इसी तरह 'शब्द अनित्य है' यह बौद्धोंका पक्ष मीमांसकोंका प्रतिपक्ष है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये । परन्तु आपके समय में किसी एक पक्षके प्रति अनुराग नहीं देखा जाता । अन्य वादों में ईर्ष्या करना ही पक्षपातका कारण है । आपके समय में ईर्ष्याका अभाव होनेसे पक्षपात नहीं है । व्यापकके न होनेपर व्याप्य भी नहीं होता, अतएव श्रापके समय में ईर्ष्या न होनेसे पक्षपातका भी अभाव है । यहाँ समय शब्दका चार प्रकारसे अर्थ किया गया है । ( १ ) जिससे शब्दका अर्थ ठीक-ठीक मालूम हो— संकेत । यहाँ सम्-इ धातुसे "पुंन्नाम्नि घः " सूत्रसे समय शब्द बनता है; भले प्रकारसे ज्ञान हो --- सिद्धान्त; (३) जिसमें जीव आदि (२) जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थोंका पदार्थोंका ठीक प्रकारसे वर्णन हो - आगम; १. भूमिनिन्दाप्रशंसासु नित्योगे ऽतिशायने । संबन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः । २. हेमसूत्र ५ -३ - १३० ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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