________________
२५६
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २९ इदानीं सप्तद्वीपसमुद्रमात्रो' लोक इति वावदूकानां तन्मात्रलोके परिमितानामेव सत्त्वाना सम्भवात् परिमितात्मवादिनां दोषदर्शनमुखेन भगवत्प्रणीतं जीवानन्त्यवादं निर्दोषतयाभिष्टुवन्नाह
मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवम् भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे ।
षड्जीवकायं त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥ २९ ॥
मितात्मवादे संख्यातानामात्मनामभ्युपगमे दूषणद्वयमुपतिष्ठते । तत्क्रमेण दर्शयति । मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवमिति । मुक्तो निर्वृतिमाप्तः। सोऽपि वा। अपिविस्मये। वाशब्द उत्तरदोषापेक्षया समुच्चयार्थः यथा देवो वा दानवो वेति । भवमभ्येतु संसारमभ्यागच्छतु । इत्येको दोषप्रसङ्गः। भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु । भवः संसारः स वा भवस्थशून्यः संसारिस जीवैर्विरहितोऽस्तु भवतु । इति द्वितीयो दोषप्रसङ्गः॥
इदमत्र आकूतम् । यदि परिमिता एव आत्मानो मन्यन्ते तदा तत्त्वज्ञानाभ्यासप्रकर्षादिक्रमेणापवर्ग गच्छत्सु तेषु संभाव्यते खलु स कश्चित्कालो यत्र तेषां सर्वेषां निर्वृतिः। कालस्यानादिनिधनत्वाद् आत्मनां च परिमितत्वात् संसारस्य रिक्तता भवन्ती केन वार्यताम् । समुनीयते हि प्रतिनियतसलिलपटलपरिपूरिते सरसि पवनतपनातपनजनोदञ्चनादिना कालान्तरे रिक्तता। न चायमर्थः प्रामाणिकस्य कस्यचिद् प्रसिद्धः। संसारस्य स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । तत्स्वरूपं हि एतद् यत्र कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः संसरन्ति समासार्षुः संसरिष्यन्ति चेति । सर्वेषां च निवृतत्वे संसारस्य वा रिक्तत्वं हठादभ्युपगन्तव्यम् । मुक्तैर्वा पुनर्भवे आगन्तव्यम् ॥
सात द्वीप और सात समुद्र मात्रको लोक माननेवाले वादियोंके मतमें जीवोंकी संख्या भी परिमित ही हो सकती है। अतएव जीवों की परिमित संख्या माननेवाले वादियोंके मतको सदोष सिद्ध करके जिनं भगवान् द्वारा प्रतिपादित जीवोंकी अनन्ताको निर्दोष सिद्ध करते हैं
इलोकार्थ-जो लोग जीवोंको अनन्त नहीं मान कर जीवोंकी संख्या परिमित मानते है, उनके मतमें मुक्त जीवोंको फिरसे संसारमें जन्म लेना चाहिये, अथवा यह संसार किसी दिन जीवोंसे खाली हो जाना चाहिये । हे भगवन्, आपने छहकायके जीवोंको अनन्त माना है, इसलिए आपके मतमें उक्त दोष नहीं आते।
व्याख्यार्थ-जीवोंको संख्यात माननेमें दूषण द्वयका प्रसंग उपस्थित होता है-मुक्त जीवोंको संसारमें फिरसे लौट कर आना चाहिये, अथवा यह संसार किसी दिन संसारी जीवोंसे शून्य हो जाना चाहिये । श्लोकमें 'अपि' शब्द विस्मय अर्थमें है, और 'वा' शब्द उत्तर दोषोंका समुच्चय करता है।
यदि जीवोंको परिमित माना जाय, तो तत्त्वज्ञानके अभ्यासकी प्रकृष्टता होनेपर किसी समय सम्पूर्ण जीवोंको मोक्ष मिल जाना चाहिये; क्योंकि काल अनादिनिधन है और जीवोंकी संख्या परिमित है। अतएव जिस प्रकार जलसे परिपूर्ण तालाब वायु और सूर्यकी गरमीसे जलसे शुष्क हो जाता है, उसी तरह कालके अनादिनिधन होनेसे और जीवोंके संख्यात होनेसे किसी समय यह संसार जीवोंसे शून्य हो जाना चाहिये। संसारका जीवोंसे शून्य होना किसी भी प्रामाणिक पुरुषने नहीं माना है, क्योंकि इससे संसार नष्ट हो जाता है। जहाँ जीव कर्मोंके वश होकर परिभ्रमण करते हैं, अथवा परिभ्रमण करेंगे, उसे संसार कहते हैं। अतएव सम्पूर्ण संसारी जीवोंका मोक्ष माननेसे संसारको प्राणियोंसे शून्य मानना ही चाहिये; अथवा मुक्त जीवोंको फिरसे संसार में जन्म लेना चाहिये ।
१. वैदिकमते जम्बुप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौञ्चशाकपुष्करा इति सप्तद्वीपाः, लवणेक्षुसुरासर्पिदधिदुग्धजलार्णवाः
इति सप्तसमुद्राश्च; बौद्धमते जम्बुपूर्वविदेहावरगोदानीयोत्तरकुरव इति चतुर्दीपाः सप्त सीताश्च; जैनमते असंख्याताः द्वीपसमुद्राः इति ।