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________________ २५७ अन्य. यो. व्य. श्लोक २९ ] स्याद्वादमञ्जरी न च वीणकर्मणां भवाधिकारः। "दग्धे वीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मवीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ।। इति वचनात् । आह च पतञ्जलि:-"सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः" इति । तट्टीका च-"सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाकारम्भी भवति नोच्छिन्नक्लेशमूलः । यथा तुषावनद्धा शालितण्डुला अदग्धवीजभावाः प्ररोहसमर्था भवन्ति नापनीततुषा दग्धबीजभावा । तथा क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकप्ररोही भवति । नापनीतक्लेशो न प्रसंख्यानदग्धक्लेशबीजभावो वेति । स च विपाकस्त्रिविधो जातिरायुर्भोगः" इति । अक्षपादोऽप्याह-"न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य" इति ॥ ___ एवं विभङ्गज्ञानिशिवराजषिमतानुसारिणो दूषयित्वा उत्तरार्द्धन भगवदुपज्ञमपरिमितात्मवादं निर्दोषतया स्तौति । षडजीवेत्यादि । त्वं तु हे नाथ तथा तेन प्रकारेण अनन्तसंख्यमनन्ताख्यसंख्याविशेषयुक्तं षड्जीवकायम् । अजीवन जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति जीवा इन्द्रियादिज्ञानादिद्रव्यभावप्राणधारणयुक्ताः तेषां “सङ्घ वानूइँ ।" इति चिनोतेर्घनि आदेश्च कत्वे कायः समूह जीवकायः पृथिव्यादिः षण्णां जीवकायानां समाहारः षड्जीवकायम् । पात्रादिदर्शनाद् नपुंसकत्वम् । अथवा षणणां जीवानां कायः प्रत्येकं सङ्घातः षड्जीवकायस्तं षड्जीवकायम् । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणषड्जीवनिकायम् । तथा तेन प्रकारेण । जिन जीवोंके कर्म नष्ट हो गये हैं, वे फिरसे संसारमें नहीं आते । कहा भी है "जिस प्रकार बीजके जल जानेपर बीनसे अंकुर नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह कर्मबीजके जल जानेपर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता।" पतंजलिने कहा है-"मूलके रहनेपर हो जाति, आयु और भोग होते है ।" टोकाकार व्यासने कहा है-"क्लेशोंके होनेपर ही कर्मोंको शक्ति फल दे सकती है, क्लेशके उच्छेद होनेपर कर्म फल नहीं देते । जिस प्रकार छिलकेसे युक्त चावलोंसे अंकुर पैदा हो सकते हैं, छिलका उतार देनेसे चावलोंमें पैदा होनेकी शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार क्लेशोंसे युक्त कर्मशक्ति फल देतो है, क्लेशोंमे नष्ट हो जानेपर कर्मशक्तिमें विपाक नहीं होता। यह विपाक जाति, आयु और भोगके भेदसे तीन प्रकारका है।" अक्षपाद ऋषिने भी कहा है-"जिसके क्लेशोंका क्षय हो गया है, उसको प्रवृत्ति बन्धका कारण नहीं होती।" इस प्रकार विभंगज्ञानी शिवराज महर्षिके अनुयायियोंकी मान्यता सदोष सिद्ध करके जिन भगवान्के कहे हुए अनन्त जीववादको निर्दोप सिद्ध करते है। जो भूतकालमें जीते थे, वर्तमानमें जीते हैं, और भविष्यमें जीयेंगे, उन्हे जीव कहते हैं। ये जीव इन्द्रिय आदि दस द्रव्य प्राणोंको और ज्ञान आदि भाव प्राणोंको धारण करते हैं। जीवोंके समूहको जीवकाय कहते हैं। यहाँ "संघे वानूा" सूत्रसे 'चि' धातुसे 'घन्' प्रत्यय होनेपर 'च' के स्थानमें 'क' हो जानेसे 'काय' शब्द बनता है। पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह प्रकारके जीवोंको 'षट्काय जीव' कहा है। यहाँ 'पात्र' आदि शब्दोंमें षड् १. तत्त्वार्थाधिगमभाष्ये १०-७ । २. पातञ्जलसूत्रे २-१३ । ३. व्यासभाष्ये । २-१३ । ४. गौतमसूत्रे ४-१-६४। ५. हैमसूत्रे ५-३-८०।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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