________________
२५५
अन्य. यो. व्य. श्लोक २८] स्याद्वादमञ्जरी विशेषोंके निषेध करनेको संग्रहाभास कहते हैं। अद्वैत वेदान्तियों और सांख्योंका संग्रहाभासमे अन्तर्भाव होता है। (३) संग्रह नयसे जाने हुए पदार्थोके योग्य रीतिसे विभाग करनेको व्यवहार नय कहते है; जैसे जो सत् है वह द्रव्य या पर्याय है। इसके सामान्य भेदक और विशेष भेदकके भेदसे दो भेद हैं। द्रव्य और पर्यायके एकान्तभेदको मानना व्यवहारभास है। इसमे चार्वाक दर्शन गभित होता है। (४) वस्तुकी अतीत और अनागत पर्यायको छोड़कर वर्तमान क्षणको पर्यायको जानना ऋजुमूत्र नय है; जैसे इस समय मैं सुखकी पर्याय भोग रहा हूँ। सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्रके भेदसे ऋजुसूत्रके दो भेद है । केवल क्षण-क्षणमें नाश होनेवाली पर्यायोंको मानकर पर्यायके आश्रित द्रव्यका सर्वथा निषेध करना ऋजुसूत्र नयाभास है । बौद्ध दर्शन इसमें गर्भित होता है। (५) पर्यायवाची शब्दोंमें भी काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्गके भेदसे अर्थभेद मानना शब्द नय है; जैसे 'आप' जलका पर्यायवाची होनेपर भी जलकी एक बूंदके लिये 'आप' का प्रयोग नहीं करना; "विरमते' और 'विरमति' पर्यायवाची होनेपर भी दूसरेके लिये 'विरमति' परस्मैपदका प्रयोग, और अपने लिये 'विरमते' आत्मनेपदका प्रयोग करना काल आदिके भेदसे शब्द और अर्थको सर्वथा भिन्न मानना शब्दाभास है (६) पर्यायवाची शब्दोंमें व्युत्पत्तिके भेदसे अर्थभेद मानना समभिरूढ नय है; जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन शब्दोंके पर्यायवाची होनेपर भी ऐश्वर्यवानको इन्द्र, सामर्थ्यवानको शक, और नगरोंके नाश करनेवालेको पुरन्दर कहना। पर्यायवाची शब्दोंको सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़ाभास है (७) जिस समय पदार्थों में जो क्रिया होती हो, उस समय क्रियाके अनुकूल शब्दोंसे अर्थक प्रतिपादन करनेको एवंभूत नय कहते है। जैसे पूजा करते समय पुजारी, और पढ़ते समय विद्यार्थी कहना । जिस समय पदार्थ में जो क्रिया होती है, उस समयको छोड़कर दूसरे समय उस पदार्थको उस नामसे नहीं कहना एवंभूत नयाभास है; जैसे जल लानेके समय ही घड़ेको घट कहना, दूसरे समय नहीं।
(४)(क) सात नयोंको द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दो विभागोंमें विभक्त किया जा सकता है।' नेगम, संग्रह और व्यवहार नय ये तोन नय द्रव्यार्थिक है, क्योंकि ये द्रव्यकी अपेक्षा वस्तुका प्रतिपादन करते हैं। तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार नय पर्यायार्थिक है, क्योंकि ये वस्तुमें पर्यायकी प्रधानताका ज्ञान करते हैं । (ख) नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र-ये चार अर्थनय हैं । इनमें शब्दके लिंग आदि बदल जानेपर भी अर्थ में अन्तर नहीं पड़ता, इसलिए अर्थको प्रधानता होनेसे ये अर्थनय कहे जाते है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयोंमें शब्दोंके लिंग आदि बदलनेपर अर्थमें भी परिवर्तन हो जाता है, इसलिये शब्दकी प्रधानतासे ये शब्दनय कहे जाते हैं। (ग) नय व्यवहार और निश्चय नयमें भी विभक्त हो सकते हैं। एवंभूतका विषय सब नयोंकी अपेक्षा सूक्ष्म है, इसलिये एवंभूतको निश्चय, और बाकीके छह नयोंको व्यवहार नय कहते हैं । (घ) सात नयोंके ज्ञाननय और क्रियानय विभाग भी हो सकते हैं। ये नय सत्यका विचार करते हैं, इसलिये ज्ञानदृष्टिकी प्रधानता होनेके कारण ज्ञाननय, और क्रियादृष्टिकी प्रधानता होनेसे क्रियानय कहे जाते हैं । नैगम आदि नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म विषयको जानते हैं।
१. ताकिकाणां त्रयो भेदा आद्या द्रव्यार्थिनो मताः। सैद्धान्तिकानां चत्वारः पर्यायार्थगताः परे ॥ यशोविजय, नयोपदेश १८ ।
यहाँ जैन शास्त्रोंमें दो परम्परायें दृष्टिगोचर होती है। पहली परम्पराके अनुसार द्रव्यास्तिकके नैगम आदि चार और पर्यायास्तिकके शब्द आदि तीन भेद हैं । इस सैद्धांतिक परम्पराके अनुयायी जिनभद्रगणि, विनयविजय, देवसेन आदि आचार्य हैं। दूसरी परम्परा तार्किक विद्वानोंकी है। इसके अनुसार द्रव्यास्तिकके नैगम आदि तीन, और पर्यायास्तिकके ऋजुसूत्र आदि चार भेद हैं। इसके अनुयायी सिद्धसेन दिवाकर, माणिक्यनन्दि, वादिदेवसूरि, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वान् हैं ।