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________________ २५२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लो. २८ एवायं गोपिण्डः गोसदृशो गवयः स एवायं जिनदत्त इत्यादिः । उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्वन्धाद्यालम्वनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहम्तापरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो वह्रौ सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति असौ न भवत्येवेति वा । अनुमानं द्विधा स्वार्थ परार्थं च । तत्रान्यथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणमंबन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात्” ।' "आप्रवचनाद् आविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। उपचाराद् आप्तवचनं च” इति। स्मृत्यादीनां च विशेषस्वरूपं स्याद्वादरत्नाकरात् साक्षेपपरिहारं ज्ञेयमिति । प्रमाणान्तराणां पुनरर्थापत्त्युपमानसंभवप्रातिभैतिह्यादीनामत्रैव अन्तर्भावः। सैन्निकर्षादीनां तु जडत्वाद् एव न प्रामाण्यमिति । तदेवंविधेन नयप्रमाणोपन्यासेन दुर्नयमार्गस्त्वया खिलीकृतः ॥ इति काव्यार्थः ।। २८॥ ( वर्तमान कालवर्ती एक जातिके पदार्थों में रहनेवाला सामान्य ) और ऊर्ध्वता सामान्य (एक ही पदार्थके क्रमवर्ती सम्पूर्ण पर्यायोंमें रहनेवाला सामान्य ) आदिको जाननेवाले संकलनात्मक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है जैसे यह गोपिंड उसी जातिका है, यह गवय गौके समान है, यह वही जिनदत्त है, आदि । उपलंभ और अनुपलंभसे उत्पन्न, त्रिकालकलित, साध्य-साधनके संबंध आदिसे होनेवाले, 'इसके होनेपर यह होता है, इस प्रकारके ज्ञानको ऊह अथवा तर्क कहते हैं; जैसे अग्निके होनेपर ही धूम होता है, अग्निके न होनेपर धूम नहीं होता । अनुमानके स्वार्थ और पदार्थ दो भेद हैं। अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु-ग्रहण करनेके संबंधके स्मरणपूर्वक साध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं। पक्ष और हेतु कह कर दूसरेको साध्यके ज्ञान करानेको परार्थानुमान कहते हैं । परार्थानुमानको उपचारसे अनुमान कहा गया है।" "आप्तके वचनसे पदार्थोंके ज्ञान करनेको आगम कहते है ।" उपचारसे आप्त वचनको प्रमाण कहा है। स्मृति आदिका विशेष स्वरूप और किये गये आक्षेपोंका परिहार स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थोंसे जानना चाहिये । अर्थापत्ति, उपमान, संभव, प्रातिभ, आदि प्रमाणोंका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंमें हो जाता है। सन्निकर्ष आदिको जड़ होनेके कारण प्रमाण नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार आपने नय और प्रमाणका उपदेश देकर दुर्नयवादके मार्गका निराकरण किया है । यह श्लोक का अर्थ है ॥ २८ ॥ भावार्थ-(१) किसी वस्तुके सापेक्ष निरूपण करनेको नय कहते हैं। प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म विद्यमान है । इन अनन्त धर्मों में किसी एक धर्मको अपेक्षासे अन्य धर्मोंका निषेध न करके पदार्थोंका ज्ञान करना नय है। प्रमाणसे जाने हुए पदार्थों में ही नयसे वस्तुके एक अंशका ज्ञान होता है। शंका-नयसे पदार्थोंका निश्चय होता है, इसलिये नयको प्रमाण ही कहना चाहिये, नय और प्रमाणको अलग अलग कहनेको आवश्यकता नहीं। समाधान-नयसे सम्पूर्ण वस्तुका नहीं, किन्तु वस्तुके एक देशका ज्ञान होता है । इसलिये जिस प्रकार समुद्रको एक बूंदको सम्पूर्ण समुद्र नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यदि समुद्रको एक बूँदको समुद्र कहा जाय, तो शेष समुद्रके पानीको असमुद्र कहना चाहिये, अथवा समुद्रके पानोको अन्य बूंदोंको भी समुद्र कहकर बहुतसे समुद्र मानने चाहिये । तथा, समुद्रकी एक बूंदको असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता। यदि समुद्रको एक बूँदको असमुद्र कहा जाय, तो शेष अंशको भी समुद्र नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार पदार्थोके एक अंशके ज्ञान करनेको वस्तु नहीं कह सकते, अन्यथा वस्तुके एक अंशके अतिरिक्त वस्तुके अन्य धर्मोको अवस्तु मानना चाहिये, अथवा वस्तुके प्रत्येक अंशको अवस्तु मानना चाहिये । तथा, पदार्थोंके एक अंशके ज्ञान करनेको अवस्तु भी नहीं कह सकते, अन्यथा वस्तुके शेष अंशोंको भी अवस्तु मानना पड़ेगा। अतएव जिस प्रकार समुद्रकी एक बूंदको समुद्र अथवा असमुद्र नहीं कहा जा सकता, उसी तरह वस्तुके एक १. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे ३-३-२३ । २. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे ४-१,२। ३. प्रत्यक्षजनकः संबंधः । यथा चाक्षुषप्रत्यक्षे चक्षुर्विपययोः संसर्गः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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