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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २८ ] २५१ व्रजति ।” इति । विशेषार्थिना नयानां नामान्वर्थविशेषलक्षणाक्षेपपरिहारादिचर्चस्तु भाष्यमहोदधिगन्धहस्तिटीका न्यायावतारादिग्रन्थेभ्यो निरीक्षणीयः ॥ स्याद्वादमञ्जरी प्रमाणं तु सन्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकं । स्याच्छन्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वान् । तथा च श्रीविमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्रः "नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥” इति " तच्च द्विविधम् प्रत्यक्षं परोक्षं च । तत्र प्रत्यक्षं द्विधा सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । सांव्यवहारिकं द्विविधम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तभेदात् । तद् द्वितयम् अवग्रहेहावायधारणाभेदाद् एकैकशचतुर्विकल्पम् । अवग्रहादीनां स्वरूपं सुप्रतीतत्वाद् न प्रतन्यते । पारमार्थिक पुनरुत्पत्तौ आत्ममात्रापेक्षम्" । तद्विविधम् । क्षायोपशमिकं क्षायिकं च । आद्यम् अवधिमनःपर्यायभेदाद् द्विधा । क्षायिकं तु केवलज्ञानमिति ॥ परोक्षं च स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमभेदात् पञ्चप्रकारम् । " तत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं स्मृतिः । तत् तीर्थकर बिम्बमिति यथा । अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्व तासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय प्रतिषेधको अपेक्षा नयके भी सात भंग होते हैं ।" नयोंका विशेष लक्षण और नयोंके ऊपर होनेवाले आक्षेपोंके परिहार आदिको चर्चा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृहद्वृत्ति गंधहस्तिटीका, न्यायावतार आदि ग्रन्थोंसे जाननी चाहिये । सम्यक् प्रकारसे अर्थके निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है । नय वाक्योंमें स्यात् शब्द लगाकर वोलनेको प्रमाण कहते हैं । श्री समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्र में विमलनाथका स्तवन करते हुए कहा है "जिस प्रकार रसोंके संयोग से लोहा अभीष्ट फलका देनेवाला बन जाता है, इसी तरह नयोंमें 'स्यात् ' शब्द लगाने से भगवान् के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फलको देते हैं, इसीलिये अपना हित चाहने वाले लोग भगवान्‌के समक्ष प्रणत हैं ।" "यह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है। सांव्यवहारिक और पारमार्थिक --- प्रत्यक्षके दो भेद हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे पैदा होता है । इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार-चार भेद हैं । अवग्रह आदिका स्वरूप सुप्रतीत होनेसे यहाँ नहीं लिखा जाता । पारमार्थिक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें केवल आत्माकी सहायता रहती है ।" यह क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे दो प्रकारका है। अवधिज्ञान और मनपर्यायज्ञान क्षायोपशमिक के भेद हैं । केवलज्ञान क्षायिकका भेद है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊहा, अनुमान और आगम - परोक्ष के पांच भेद हैं । " संस्कारसे उत्पन्न अनुभव किये हुए पदार्थ में 'वह है' इस प्रकारके स्मरण होनेको स्मृति कहते हैं; जैसे वह तीर्थंकरका प्रतिबिम्ब है । वर्तमानमें किसी वस्तुके अनुभव करनेपर और भूतकालमें देखे हुए पदार्थका स्मरण होनेपर तिर्यक् सामान्य १. सिद्धसेनगणिविरचिततत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्तिः । तदेव गन्धहस्तिटीका । २. बृहत्स्वयंभूस्तोत्रावल्यां विमलनाथस्तवे ६५ ॥ ३. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे २ -१, ४, ५, ६, १८ । ४. क्षयेणोदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमे विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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