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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २८ भिन्नमर्थं समभिरोहन् समभिरूढः । इन्दनाद् इन्द्रः शकनाच्छकः पूर्दारणात् पुरन्दर इत्यादिषु यथा। पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः। यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवद् इत्यादिः। शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविशिष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन् एवंभूतः। यथेन्दनमनुभवन् इन्द्रः शकनक्रियापरिणतः शक्रः पूरणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते । क्रियानाविष्टं वस्तु न घटशब्दवाच्यम् घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादिः॥
एतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वाद् अर्थनयाः। शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनयाः। पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः परः परस्तु परिमितविषयः । सन्मात्रगोचरात् संग्रहात् नैगमो भावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषयः। सद्विशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद् बहुविषयः। वर्तमानविषयाद् ऋजुसूत्राद् व्यवहारस्त्रिकालविषयावलम्बित्वाद् अनल्पार्थः । कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वाद् महार्थः । प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतःसमभिरूढात् शब्दस्तद्विपर्ययानुयायित्वात् प्रभूतविषयः । प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थ प्रतिजानानाद् एवंभूतात् समभिरूढस्तदन्यथार्थस्थापकत्वाद् महागोचरः। नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गोमनु
निरुक्तिके भेदसे भिन्न अर्थको कहना समभिरूढ़ नय है; जैसे ऐश्वर्यवान् होनेसे इन्द्र, समर्थ होनेसे शक्र और नगरोंका नाश करनेवाला होनेसे पुरन्दर कहना। पर्यायवाची शब्दोंको सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़ नयाभास है; जैसे करि ( हाथी ) कुरंग ( हरिण ) और तुरंग शब्द परस्पर भिन्न है, वैसे ही इन्द्र, शक्र
और पुरन्दर शब्दोंको सर्वथा भिन्न मानना। (४) जिस समय पदार्थोंमें जो क्रिया होती हो, उस समय उस क्रियाके अनुरूप शब्दोंसे अर्थके प्रतिपादन करनेको एवंभूत नय कहते हैं। जैसे परम ऐश्वर्यका अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होनेके समय शक्र, और नगरोंका नाश करनेके समय पुरन्दर कहना। पदार्थमें अमुक क्रिया होनेके समयको छोड़कर दूसरे समय उस पदार्थको उसी शब्दसे नहीं कहना, एवंभूत नयाभास है; जैसे, जिस प्रकार जल लाने आदिकी क्रियाका अभाव होनेसे पटको घट नहीं कहा जा सकता, वैसे ही जल लाने आदि क्रियाके अतिरिक्त समय घड़ेको घट नहीं कहना।
सात नयोंमें नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थका प्रतिपादन करनेके कारण अर्थनय कहे जाते हैं । बाकीके शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय शब्दका प्रतिपादन करनेसे शब्दनय कहे जाते हैं। इन नयोंमें पहले-पहले नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगेके नय परिमित विषयवाले हैं। संग्रह नय सत् मात्रको जानता है, और नैगम नय सामान्य और विशेष दोनोंको जानता है, इसलिये संग्रह नयकी अपेक्षा नैगम नयका अधिक विषय है। व्यवहार नय संग्रहसे जाने हुए पदार्थोंको विशेष रूपसे जानता है, और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थोंको जानता है, इसलिये संग्रह नयका विषय व्यवहार नयसे अधिक है। व्यवहार नय तीनों कालोंके पदार्थोंको जानता है, और ऋजुसूत्रसे केवल वर्तमानकालीन पदार्थोंका ज्ञान होता है, अतएव व्यवहार नयका विषय ऋजुसूत्रसे अधिक है । शब्द नय, काल आदिके भेदसे वर्तमान पर्यायको जानता है, ऋजुसूत्रमें काल आदिका कोई भेद नहीं, इसलिये शब्द नयसे ऋजुसूत्र नयका विषय अधिक है। समभिरूढ़ नय इन्द्र, शक्र आदि पर्यायवाची शब्दोंको भी व्युत्पत्तिकी अपेक्षा भिन्न रूपसे जानता है, परन्तु शब्द नयमें यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़से शब्द नयका विषय अधिक है। समभिरूढ़से जाने हुए पदार्थोंमें क्रियाके भेदसे वस्तुमें भेद मानना एवंभूत है; जैसे समभिरूढ़की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपतिमें भेद होनेपर भी नगरोंका नाश करनेकी क्रिया न करनेके समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्रके अर्थमें प्रयुक्त होता है, परन्तु एवंभूतको अपेक्षा नगरोंका नाश करते समय ही इन्द्रको पुरन्दर नामसे कहा जा सकता है । अतएव एवंभूतसे समभिरूढ़ नयका विषय अधिक है। प्रमाणके सात भंगोंकी तरह अपने विषयमें विधि और