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अन्य. यो. व्य. श्लोक २८ ]
स्याद्वादमञ्जरी
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मभिमन्यमानः परसंग्रहः । विश्वमेकं सदविशेषादिति यथा । सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निराचक्षाणस्तदाभासः । यथा सत्त्व तत्त्वम् ततः पृथग्भूतानां बिशेषाणामदर्शनात् । द्रव्यत्वादीनि अवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गज निमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः। धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदात् इत्यादिर्यथा । तद्द्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नवानस्तदाभासः । यथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वम् ततोऽर्थान्तरभूतानां द्रव्याणामनुपलब्धेरित्यादिः । संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यथा यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वेत्यादिः । यः पुनरपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागमभिप्रैति स व्यवहाराभासः । यथा चार्वाकदर्शनम् ॥
पर्यायार्थिकश्चतुर्धा ऋजुसूत्रः शब्दः समभिरूढः एवंभूतश्च । ऋजु वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्रायः ऋजुसूत्रः । यथा सुखविवर्तः सम्प्रति अस्तीत्यादिः । सर्वथा द्रव्यापलापी तदाभासः । यथा तथागतमतम् । कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । यथा वभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः । तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः । यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दा भिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक् सिद्धान्यशब्दवद् इत्यादिः । पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन
हैं। (ग) सुख और जीव परस्पर भिन्न हैं । ( २ ) विशेष रहित सामान्य मात्र जाननेवालेको संग्रह नय कहते हैं। पर और अपर सामान्यके भेदसे संग्रहके दो भेद हैं । सम्पूर्ण विशेषोंमें उदासीन भाव रखकर शुद्ध सत् मात्रको जानना पर संग्रह हैं; जैसे सामान्यसे एक विश्व ही सत् है । सत्ताद्वैतको मानकर सम्पूर्ण विशेषोंका निषेध करना परसंग्रहाभास है; जैसे सत्ता ही एक तत्त्व है, क्योंकि सत्तासे भिन्न विशेष पदार्थोंकी उपलब्धि नहीं होती । द्रव्यत्व, पर्यायत्व आदि अवान्तर सामान्योंको मानकर उनके भेदोंमें मध्यस्थ भाव रखना अपर संग्रह नय है; जैसे द्रव्यत्वकी अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव एक हैं । ( इसी प्रकार पर्यायत्वकी अपेक्षा चेतन और अचेतन पर्याय एक हैं ) । धर्म, अधर्म आदिको केवल द्रव्यत्व रूपसे स्वीकार करके उनके विशेषोंके निषेध करनेको अपर संग्रहाभास कहते हैं; जैसे द्रव्यत्व ही तत्त्व हैं, क्योंकि द्रव्यत्वसे भिन्न द्रव्योंका ज्ञान नहीं होता । ( ३ ) संग्रह नयसे जाने हुए पदार्थोंमें योग्य रीति से विभाग करनेको व्यवहार नय कहते हैं। जैसे जो सत् है, वह द्रव्य या पर्याय है । ( यद्यपि संग्रह नयकी अपेक्षा द्रव्य और पर्याय सत्से अभिन्न हैं, परन्तु व्यवहार नयकी दृष्टिसे द्रव्य और पर्यायको सत्से भिन्न माना गया है ) । अपारमार्थिक द्रव्य और पर्यायके एकान्त भेद प्रतिपादन करनेको व्यवहाराभास कहते हैं; जैसे चार्वाकदर्शन । ( चार्वाक लोग जीव द्रव्यके पर्याय आदि न मानकर केवलभूत चतुष्टयको मानते हैं, अतएव उनको व्यवहाराभास कहा गया
ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार पर्यायार्थिक नयके भेद हैं । ( १ ) वर्तमान क्षणकी पर्याय मात्रकी प्रधानतासे वस्तुका कथन करना ऋजुसूत्र है; जैसे इस समय मैं सुखकी पर्याय भोगता हूँ । द्रव्यके सर्वथा निषेध करनेको ऋजुसूत्र नयाभास कहते हैं, जैसे बोद्धमत । ( बौद्ध लोग क्षण क्षणमें नाश होनेवाली पर्यायोंको हो वास्तविक मानकर पर्यायोंके आश्रित द्रव्यका निषेध करते हैं, इसलिये उनका मत ऋजुसूत्र नयाभास है ) । ( २ ) काल, कारक, लिंग, संख्या, वचन और उपसर्गके भेदसे शब्द के अर्थमें भेद माननेको शब्द नय कहते हैं; जैसे बभूव भवति, भविष्यति ( काल ); करोति, क्रियते ( कारक ); तटः, तटी, तटं ( लिंग ); दारा, कलत्रम् ( संख्या ); एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता ( पुरुष ); सन्तिष्ठते, अवतिष्ठते ( उपसर्ग ) । काल आदिके भेदसे शब्द और अर्थको सर्वथा अलग माननेको शब्दाभास कहते हैं; जैसे सुमेरु था, सुमेरु है और सुमेरु होगा, आदि भिन्न-भिन्न कालके शब्द भिन्न कालके शब्द होने से भिन्न-भिन्न अर्थोंका ही प्रतिपादन करते हैं, जैसे अन्य भिन्न कालके शब्द । ( ३ ) पर्याय शब्दों में
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