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________________ २४८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २८ एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधर्मावधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नयसंज्ञामश्नुवते । तबलप्रभावितसत्ताका हि खल्वेते परप्रवादाः। तथाहि-नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिकवैशेषिकौ । संग्रहाभिप्रायवृत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादाः सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति प्रायश्चार्वाकदर्शनम् । ऋजुसूत्राकूतप्रवृत्तबुद्धयस्ताथागताः शब्दादिनयावलम्बिनो वैयाकरणादयः॥ उक्तं च सोदाहरणं नयदुर्नयस्वरूपं श्रीदेवसूरिपादैः । तथा च तद्ग्रन्थः-"नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयोकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः इति । स्वाभिप्रेताद् अंशाद् इतरांशापलावी पुनर्नयाभासः। स व्याससमासाभ्यां द्विप्रकारः। व्यासतोऽनेकविकल्पः । समासतस्तु द्विभेदो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । आद्यो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् त्रेधा। धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः । सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः। वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति धर्मिणोः । क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धिर्भेगमाभासः। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तं पृथग्भूते इत्यादिः। सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः अयमुभयविकल्पः परोऽपरश्च । अशेषविशेषेषु औदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्र जिस समय ये नय अन्य धर्मोका निषेध करके केवल अपने एक अभीष्ट धर्मका ही प्रतिपादन करते है, उस समय दुर्नय कहे जाते हैं। एकान्तवादी लोग वस्तुके एक धर्मको सत्य मान कर अन्य धर्मोंका निषेध करते है, इसलिये वे लोग दुर्नयवादी कहे जाते है। तथाहि-न्याय-वैशेषिक लोक नैगम नयका अनुकरण करते हैं, अद्वैतवादी और सांख्य संग्रह नयको मानते हैं । चार्वाक लोग व्यवहार नयवादी है, बौद्ध लोग केवल ऋजसूत्र नयको मानते हैं, तथा वैयाकरणी लोग शब्द आदि नयका ही अनुकरण करते हैं। देवसरि आचार्यने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारमें नय और दुर्नयका स्वरूप उदाहरण सहित प्रतिपादित किया है-"श्रुतज्ञान प्रमाणसे जाने हुए पदार्थों का एक अंश जान कर अन्य अंशोंके प्रति उदासनी रहते हुए वक्ताके अभिप्रायको नय कहते है। अपने अभीष्ट धर्मके अतिरिक्त वस्तुके अन्य धर्मोके निषेध करनेको नयाभास ( दुर्नय ) कहते है। संक्षेप और विस्तारके भेदसे नय दो प्रकारका है। विस्तारसे नयके अनेक भेद हैं । संक्षेपमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक-ये नयके दो भेद है। द्रव्यार्थिक नयके नैगम, संग्रह और व्यवहार तीन भेद हैं । (१) दो धर्म अथवा दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मीमें प्रधान और गौणताकी विवक्षाको नैकगम अथवा नैगम नय कहते हैं। (क ) जैसे सत् और चैतन्य दोनों आत्माके धर्म हैं। यहां सत् और चैतन्य दोनों धर्मोंमें चैतन्य विशेष्य होनेसे प्रधान धर्म है, और सत् विशेषण होनेसे गौण धर्म है। ( ख ) पर्यायवान द्रव्यको वस्तु कहते हैं। यहाँ द्रव्य और वस्तु दो धर्मियोंमें द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है । अथवा पर्यायवान वस्तुको द्रव्य कहते हैं। यहाँ वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (ग) विषयासक्त जीव क्षणभरके लिये सुखी हो जाता है यहां विषयासक्त जीव रूप धर्मी मुख्य, और क्षणभरके लिये सुखी होना रूप धर्म गौण है। दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म और धर्मों में सर्वथा भिन्नता दिखानेको नैगमाभास कहते हैं । जैसे (क ) आत्मामें सत् और चैतन्य परस्पर भिन्न हैं ( ख ) पर्यायवान वस्तु और द्रव्य सर्वथा भिन्न १. प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारे सप्तमपरिच्छेदे १-५३ । २. अनन्तांशात्मके वस्तुन्येकैकांशपर्यवसायिनो यावन्तः प्रतिपत्तॄणामभिप्रायास्तावन्तो नयाः। ते च नियत संख्यया संख्यातुं न शक्यन्त इति व्यासतो नयस्यानेकप्रकारत्वमुक्तम् । ३. द्रवति द्रोष्यति अदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तदेवार्थः। सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिकः । पर्येत्युत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः । सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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