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अन्य. यो. व्य. श्लोक २८] स्याद्वादमञ्जरी
२४७ तदा कपालमृत्पिण्डादावपि तत्प्रवर्तनं दुर्निवारं स्याद्, विशेषाभावात् । तस्माद् यत्र क्षणे व्युत्पत्तिनिमित्तमविकलमस्ति तस्मिन् एव सोऽर्थस्तच्छब्दवाच्य इति ।। अत्र संग्रहश्लोकाः
"अन्यदेव हि सामान्यभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः॥१॥ सद्रपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः॥२॥ व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिनः ।। ३ ।। तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याद् शुद्धपर्यायसंश्रिता। नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः ।। ४ ।। विरोधिलिङ्ग संख्यादिभेदादु भिन्नस्वभावताम्। तस्यैव मन्यमानोऽयं प्रत्यवतिष्ठते ॥५॥ तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवर्तिनः। ब्रते समभिरूढस्त संज्ञाभेदेन भिन्नताम ॥६॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते ।
क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते” ॥७॥ किया जाता है तो प्रवृत्तिनिमित्त का अभाव होनेपर अन्य सभी पदार्थोंको लेकर घट शब्दका व्यवहार क्यों न किया जाये?) यदि अतीत या अनागत चेष्टाओंकी अपेक्षासे वर्तमानकालीन चेष्टा रहित, उस दूसरे पदार्थको लेकर घट शब्द प्रयुक्त किया जाता है तो कपाल और मृत्पिडमें भी घट शब्दका प्रयोग करना दुनिवार हो जायेगा। क्योंकि जिस प्रकार उस दूसरे पदार्थमें वर्तमानकालीन विशिष्ट चेष्टाका अभाव होता है तथा भत अथवा भविष्य कालमें चेष्टाका सद्भाव होता है, उसी प्रकार कपालमें भूतकालमें तथा मत्पिडमें भविष्य कालमें चेष्टाका सद्भाव और वर्तमानकालीन चेष्टाका अभाव होता है । अतएव जिस क्षणमें किसी शब्दकी व्युत्पत्तिका निमित्त कारण भूत पदार्थ सम्पूर्ण रूपसे विद्यमान हो, उसी क्षणमें वह पदार्थके द्वारा वाच्य होता है।
यहाँ संग्रह श्लोक हैं
"नैगम नयके अनुसार विशेष रहित सामान्य ज्ञानका कारणभूत ( वस्तुगत ) सामान्य भिन्न होता हैं और विशेष भी भिन्न होता है ॥१॥
अपने-अपने स्वभावमें स्थित सभी पदार्थ हैं अस्तित्व धर्मको नहीं छोड़ते हैं। इन सभी पदार्थोंका सत्तारूपसे जो संग्रह करता है, उसे संग्रह नय कहते हैं ॥२॥
सत्ताके समान दिखाई देनेवाली होनेके कारण प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान रहनेवाली उस सत्ताके लियेअवान्तर सत्तावाले पदार्थोंके लिये-प्राणियोंको व्यवहार नय प्रवृत्त कराता है ।। ३ ॥
स्थिति-ध्रौव्य-का अभाव ( गौणत्व ) होनेसे केवल नश्वर पर्यायका सद्भाव होनेके कारण, अर्थक्रियाकारी होनेसे पारमार्थिक पर्यायका आश्रयी ऋजुसूत्र नय होता है ॥४॥
परस्पर विरोधी लिंग, संख्या आदिके भेदसे भिन्न-भिन्न धर्मोको माननेवाला शब्द नय होता है ॥५॥ क्षणस्थायी वस्तुको भिन्न-भिन्न संज्ञाओंके भेदसे भिन्न मानना समभिरूढ़ नय है ।। ६ ॥
वस्तु अमुक क्रिया करनेके समय ही अमुक नामसे कही जा सकती है, वह सदा एक शब्दका वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूत नय कहते हैं ।। ७॥"