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________________ २४६ श्रीमदराजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य.यो. व्य. श्लोक २८ ___समभिरूढस्तु पर्यायशब्दानां प्रविभक्तमेवार्थमभिमन्यते । तद्यथा इन्दनात् इन्द्रः। पारमैश्वर्यम् इन्द्रशब्दवाच्यं परमार्थतस्तद्वत्यर्थे, अतद्वत्यर्थे पुनरुपचारतो वर्तते । न वा कश्चित् तद्वान् , सर्वशब्दानां परस्परविभक्तार्थप्रतिपादितया आश्रयाश्रयिभावेन प्रवृत्त्यसिद्धेः। एवं शकनात् शक्रः पूर्दारणात् पुरन्दर इत्यादिभिन्नार्थत्वं सर्वशब्दानां दर्शयति । प्रमाणयति चपर्यायशव्दा अपि भिन्नार्थाः, प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकत्वात् । इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकास्ते ते भिन्नार्थकाः, यथा इन्द्रपशुपुरुषशब्दाः। विभिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्याय. शब्दा अपि । अतो भिन्नार्था इति ।। ___एवभूतः पुनरेवं भाषते-यस्मिन् अर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्ययुत्पत्तिनिमित्तम् । अर्थो यदैव प्रवर्तते तदैव तं शब्द प्रवर्तमानमभिप्रैति, न सामान्येन । यथा उदकाद्याहरणवेलायां योषिदादिमस्तकारूढो विशिष्टचेष्टावान् एव घटोऽभिधीयते न शेषः, घटशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात, पटादिवद् इति । अतीतां भाविनी वा चेष्टामङ्गीकृत्य सामान्येनैवोच्यत इति चेत् । न। तयोविनष्टानुत्पन्नतया शशविषाणकल्पत्वात् तथापि तद्द्वारेण शब्दप्रवर्तने सर्वत्र प्रवर्तयितव्यः, विशेषाभावात् । किंच यदि अतीतवत्स्य॑च्चेष्टापेक्षया घटशब्दोऽचेष्टावत्यपि प्रयुज्येत (६) समभिरूढ़ नय पर्यायवाची शब्दोंमें भिन्न अर्थको द्योतित करता है। जैसे इन्द्र शक्र और पुरन्दर शब्दोंके पर्यायवाची होनेपर भी इन्द्रसे परम ऐश्वर्यवान ( इन्दनात् इन्द्रः ), शक्रसे सामर्थ्यवान ( शकनात् शक्रः ) और पुरन्दरसे नगरोंको विदारण करनेवाले (पूर्दारणात् पुरन्दरः) भिन्न-भिन्न अर्थोंका ज्ञान होता है। वास्तवमें इन्द्र शब्दके कहनेसे इन्द्र शब्दका वाच्य ( परम ऐश्वर्यवाले ) में ही मिल सकता है । जिसमें परम ऐश्वर्य नहीं है, उसे केवल उपचारसे ही इन्द्र कहा जा सकता है। इसलिये वास्तवमें जो परम ऐश्वर्यसे रहित है, उसे इन्द्र नहीं कह सकते। अतएव परस्पर भिन्न अर्थको प्रतिपादन करनेवाले शब्दोंमें आश्रय और आश्रयी संबंध नहीं बन सकता। इसी तरह शक्र और पुरन्दर शब्द भी भिन्न अर्थको द्योतित करते हैं। अतएव भिन्न व्युत्पत्ति होनेसे पर्यायवाची शब्द भिन्न भिन्न अर्थोके द्योतक हैं। जिन शब्दोंकी व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न होती है, वे शब्द भिन्न भिन्न अर्थोके द्योतक होते हैं, जैसे इन्द्र, पशु और पुरुष शब्द । पर्यायवाची शब्द भी भिन्न व्युत्पत्ति होनेके कारण भिन्न अर्थको सूचित करते हैं। (७) एवंभूत नय ऐसा कहता है-जिस अर्थको लेकर शब्दकी व्युत्पत्ति की जाती है, वही अर्थ उस शब्दकी व्युत्पत्ति-प्रवृत्ति-का निमित्त होता है । जिस समय अर्थ प्रवृत्त होता है, उस समय प्रवृत्त होता हुआ उसे अभिप्रेत होता है, सामान्यतः नहीं। जैसे, जल लानेके समय स्त्रियोंके सिरपर रक्खे हुए विशिष्ट क्रिया युक्त घड़ेको ही 'घट' कह सकते है, दूसरी अवस्थामें घड़ेको 'घट' नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जिस तरह पटको घट नहीं कहा जा सकता, उसी तरह घड़ा भी जल लाने आदिकी क्रिया रहित अवस्थामें घट शब्दकी व्युत्पत्तिका निमित्त नहीं हो सकता। 'स्त्रियोंके सिर पर न रक्खे हुए और विशिष्ट क्रियासे रहित पदार्थकी अतीत और अनागत विशिष्ट चेष्टा-क्रिया को स्वीकार कर, वह दूसरा पदार्थ सामान्यतः घट कहा जाता है' यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि उस दूसरे पदार्थकी अतीतकालीन चेष्टा नाश होने अथवा अनागतकालीन चेष्टाके अनुत्पन्न होनेसे, ये चेष्टाएँ शशविषाणके सदृश होती है, अर्थात् उनका अभाव होता है। दूसरे पदार्थको अतीत चेष्टाका नाश अथवा अनागतकालीन चेष्टाकी अनुत्पत्ति होनेसे, उन चेष्टाओंका अभाव होनेपर भी यदि उन चेष्टाओंके द्वारा उस दूसरे पदार्थको लेकर घट शब्द प्रवृत्त किया गया तो सभी पदार्थों को लेकर घट शब्दका व्यवहार करना चाहिये-सभी पदार्थोंको घट कहना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार उस दूसरे पदार्थकी अतीत या अनागत चेष्टाओंका ( शब्दप्रवर्तन कालमें ) अभाव होता है, उसी प्रकार ( शब्दप्रवर्तन कालमें ) अन्य सभी पदार्थोंकी अतीत या अनागत चेष्टाओंका अभाव होता है। ( तात्पर्य यह है कि जब प्रवृत्तिनिमित्तका अभाव होनेपर भी. एक पदार्थको लेकर घट शब्दका व्यवहार
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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