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अन्य. यो. व्य. श्लोक २८] स्याद्वादमञ्जरी
२४३ प्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति प्रापयति संवेदनकोटिमारोहयति इति नयः । प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । नयाश्चानन्ताः, अनन्तधर्मत्वात् वस्तुनः तदेकधर्मपर्यवसितानां वक्तुरभिप्रायाणां च नयत्वान् । तथा च वृद्धाः- “जाइआ वयणपहा तावइया चेव हुँति नयवाया"' इति । तथापि चिरन्तनाचार्यः सर्वसंग्राहिसप्ताभिप्रायपरिकल्पनाद्वारेण सप्त नयाः प्रतिपादिताः। तद्यथा-नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूता इति । कथमेषां सर्वसंग्राहकत्वमिति चेन् । उच्यते । अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणाः प्रमात्रभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति । ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति ॥
तत्र नैगमः सत्तालक्षणं महासामान्यम, अवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्वकमत्वादीनि. तथान्त्यान विशेपान सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवान्तरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावर्तनक्षमान सामान्यान् अत्यन्तविनि ठितस्वरूपानभिप्रैति । इदं च स्वतन्त्रसामान्यविशेपवादे क्षण्णमिति न पृथकप्रयत्नः प्रवचनप्रसिद्धनिलयनप्रस्थदृष्टान्तद्वयंगम्यश्चायम् ।
निश्चय होनेपर उसका नयसे ज्ञान होता है। वस्तुओंमें अनन्त धर्म होते हैं, अतएव नय भी अनन्त होते हैं । वस्तुके अनन्त धर्मोमेमे बक्ताके अभिप्रायके अनुसार एक धर्मके कथन करनेको नय कहते हैं। वृद्धोंने कहा भी है-"जितनेप्रकारसे बचन बोले जा सकते हैं, उतने ही नय होते हैं।" फिर भी पूर्व आचार्योने सबका संग्रह करनेवाले सात वचनोंकी कल्पना करके नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन सात नयोंका ही प्रतिपादन किया है। अर्थ अथवा शब्दसे अपने अभिप्राय प्रगट किये जा सकते है। नंगम, संग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र ये चार अर्थका निरूपण करते है, इसलिये अर्थनय कहे जाते हैं, तथा शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय शब्दका प्ररूपण करते हैं, इसलिये शब्दनय कहे जाते हैं, अतएव ये सात नय सर्वसंग्राहक हैं।
(१) नैगम नय सत्तारूप महा सामान्यको; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्यको; असाधारण रूप विशेपको; तथा पररूपसे व्यावृत और सामान्यसे भिन्न अवान्तर विशेषोंको जानता है। यह नय सामान्य-विशेपको ग्रहण करता है। नैगम नयका स्वरूप ( चौदहवें श्लोकमें ) सामान्य-विशेषका निरूपण करते समय बताया गया है, अतएव यहाँ अलग नहीं लिखा जाता। निलयन और प्रस्थ ये नैगम नयके दृष्टांत शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है । ( निलयन शब्दका अर्थ निवास स्थान होता है। जैसे किसीने किसीसे पूछा, 'आप कहाँ रहते हैं।' उसने जवाब दिया, कि 'मैं लोकमें रहता हूँ।' लोकमें भी जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रमध्यखण्ड-अमुक देश-अमुक नगर-अमुक घरमें रहता हूँ। नैगम नय इन सब विकल्पोंको जानता है। दूसरा दृष्टांत प्रस्थका है। धान्यको मापनेके पांच सेरके परिमाणको प्रस्थ कहते हैं। किसीने किसी आदमीको कुठार ले कर जंगलमें जाते हुए देखकर पूछा, 'आप कहां जाते हैं ?' उस आदमीने जबाब दिया, कि 'मैं प्रस्थ लेने जाता हूँ।' ये दोनों नैगम नयके उदाहरण हैं।)
१. छाया-यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव भवन्ति नयवादाः । सन्मतितकप्रकरणे ३-४७ । २. तत्र निलयनं वसनमित्यनर्थान्तरम् । तदृष्टान्तो यथा-कश्चित् केनचित् पृष्टः क्व वसति भवान् ? स
प्राह-लोके । तत्रापि जम्बूद्वीपे, तत्रापि भरतक्षेत्रे, तत्रापि मध्यखण्डे, तत्राप्येकस्मिन् जनपदे नगरे गृहे इत्यादीन् सर्वानपि विकल्पान् नैगम इच्छति ॥ प्रस्थको धान्यमानविशेषः । तदृष्टान्तो यथा-तद्योग्यं काष्ठं वृक्षावस्थायामपि तदनुकीर्तिकं स्कन्धे कृतं गृहमानीतमित्यादिसर्वास्वप्यवस्थासु नैगमः प्रस्थकमिच्छति । हरिभद्रीयावश्यकटिप्पणे नयाधिकारः ।