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________________ २४४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो . व्य. श्लोक २८ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते । एकच्चसामान्यैकान्तवादे प्राक् प्रपञ्चितम् ।। व्यवहारस्त्वेवमाह यथा-लोकग्राहमेव वस्तु अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवव्हियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहक प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य । न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमिः, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च । नापि विशेषाः परमाणुलक्षणाः क्षणक्षयिणः प्रमाणगोचराः, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणप्रसिद्ध कियत्कालभाविस्थूलतामाविभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिवर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी, तत्र प्रमाणप्रसराभावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यालोचनेन । तथाहि-पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ताः क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपाः। लोकव्यवहाररोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्था गच्छति, कुण्डिका स्रवति, गिरिदह्यते, मञ्चाः क्रोशन्ति इत्यादिव्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचमुख्य:-"लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृताथों व्यहारः" इति ।। ऋजुसूत्रः पुनरिदं मन्यते-वर्तमानक्षणविवर्येव वस्तुरूपम् । नातीतमनागतं च । अतीतस्य विनष्टत्वाद् अनागतस्यालब्धात्मलाभत्वात् खरविषाणादिभ्योऽविशिष्यमाणतया (२) विशेषोंकी अपेक्षा न करके वस्तुको सामान्यसे जाननेको संग्रह नय कहते हैं। इसका निरूपण ( चौथे, पांचवें श्लोकमें ) सामान्य एकान्तका प्ररूपण करते समय किया जा चुका है। (३) जितनी वस्तु लोकमें प्रसिद्ध है, अथवा लोकव्यवहारमें आती है, उन्हींको मानना, और अदृष्ट और अव्यवहार्य वस्तुओंकी कल्पना निष्प्रयोजन है। संग्रह नयसे जाना हुआ अनादि निधन रूप सामान्य व्यवहार नयका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि इस सामान्यका सर्व साधारणको अनुभव नहीं होता। यदि इस सामान्यका सब लोगोंको अनुभव होने लगे, तो सब लोग सर्वज्ञ हो जायें। इसी प्रकार क्षण-क्षणमें नष्ट होने वाले परमाणु रूप विशेष भी प्रमाणके विषय नहीं हो सकते, क्योंकि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ हमारे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणके बाह्य होनेसे हमारी प्रवृत्तिके विषय नहीं है । अतएव व्यवहार नयकी अपेक्षा कुछ समयके तक रहनेवाली स्थूल पर्यायको धारण करनेवाला और जलधारण आदि क्रियाओंके करनेमें समर्थ घट आदि वस्तु ही पारमार्थिक और प्रमाणसे सिद्ध हैं, क्योंकि इनके माननेमें कोई लोक विरोध नहीं आता। इसलिये घटका ज्ञान करते समय घटकी पूर्व और उत्तर कालकी पर्यायोंका विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय प्रमाणसे नहीं जानी जाती । तथा, ये पूर्वोत्तर पर्याय अवस्तु है। पूर्व और उत्तर कालमें होनेवाली द्रव्यको पर्याय अथवा क्षण-क्षणमें नाश होनेवाले विशेष रूप परमाणु लोकव्यवहारमें उपयोगी न होनेसे अवस्तु है। क्योंकि जो लोकव्यवहारमें उपयोगी होता है, उसे ही वस्तु कहते हैं । अतएव 'रास्ता जाता है, कुंड बहता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं' आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होनेसे प्रमाण है । वाचकमुख्यने कहा भी है-"लोकव्यवहारके अनुसार उपचरित अर्थको बतानेवाले विस्तृत अर्थको व्यवहार कहते हैं।" (४) वस्तुको अतीत और अनागत पर्यायोंको छोड़कर वर्तमान क्षणकी पर्यायोंको जानना जुसूत्र नयका विषय है । वस्तुकी अतीत पर्याय नष्ट हो जाती है, और अनागत पर्याय उत्पन्न नहीं होती, इसलिये अतीत और अनागत पर्याय खरविषाणकी तरह सम्पूर्ण सामर्थ्यसे रहित होकर कोई अर्थक्रिया नहीं कर १. तत्त्वार्थधिगमभाष्ये १-३५ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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