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अन्य. यो. व्य. श्लोक २८] स्याद्वादमञ्जरी
२४१ प्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नयाः। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः। नया नैगमादयः। प्रमीयते परिच्छिचतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेन इति प्रमाणम् स्याद्वादात्मकं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् । दुर्नीतयश्च नयाश्च प्रमाणे च दुर्नीतिनयप्रमाणानि तैः।।
केनोल्लेखेन मीयते इत्याह सदेव सत् स्यात्सद् इति । सदिति अव्यक्तत्वाद् नपुंसकत्वम् यथा किं तत्या गर्ने जातमिति । सदेवेति दुर्नयः। सदिति नयः। स्यात्सदिति प्रमाणम् । तथाहि-दुर्नयस्तावत्सदेव इति ब्रवीति । 'अस्त्येव घटः' इति । अयं वस्तुनि एकान्तास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति । दुर्नयत्वं चास्य मिथ्यारूपत्वात् । मिथ्यारूपत्वं तत्र धर्मान्तराणां सतामपि निह्नवात् । तथा सदिति उल्लेखनात् नयः। स हि 'अस्ति घटः' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेपधर्मेषु गजनिमिलिकामालम्बते । न चास्य दुर्नयत्वं । धर्मान्तरातिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वं । स्याच्छब्देन अलाञ्छितत्वात । स्यात्सदिति 'स्यात्कथञ्चित् सद् वस्तु' इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टेष्टाबाधितत्वाद् विपक्षे वाधकसद्भावाच । सर्वं हि वस्तु स्वरूपेण सत् पररूपेण चासद् इति असकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्रदर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वानित्यत्ववक्तव्यत्वावक्तव्यत्वसामान्यविशेपादि अपि वोद्धव्यम् ।। ___इत्थं वस्तुस्वरूपमाख्याय स्तुतिमाह यथार्थदर्शी इत्यादि । दुर्नीतिपथं दुर्नयमार्गम् । तुशब्दस्य अवधारणार्थस्य भिन्नक्रमत्वात् त्वमेव आस्थः त्वमेव निराकृतवान् । न तीर्थान्तरदेवतानि । केन कृत्वा । नयप्रमाणपथेन । नयप्रमाणे उक्तस्वरूपे। तयोर्माण प्रचारेण । यतस्त्वं यथार्थदर्शी । यथार्थोऽस्ति तथैव पश्यतीत्येवंशीलो यथार्थदर्शी । विमलकेवलज्योतिषा यथाहोते है, वे दुर्नय है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है। जिसके द्वारा अनंत धर्मात्मक पदार्थ जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण स्याद्वादरूप होता है। इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद हैं ।
यहाँ 'सत्' शब्द अव्यक्त है, इसलिये वह नपंसक लिंगमें प्रयुक्त हुआ है। जिस प्रकार गर्भस्थ बच्चे के लिंगका ठीक ज्ञान न होनेसे "किं तस्या गर्भे जातम्' इस वाक्यमें नपुंसक लिंगका प्रयोग हुआ है, उसी तरह 'सत्' शब्द भी नपुंसक लिंगमें प्रयुक्त हुआ है। (१) किसी वस्तुमें अन्य धर्मोका निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्वको सिद्ध करनेको दुर्नय कहते हैं, जैसे यह घट हो है ( अस्त्येव घटः ) । वस्तुमें अभीष्ट धर्मकी प्रधानतासे अन्य धर्मोंका निपेध करनेके कारण दुर्नयको मिथ्या कहा गया है। (२) किसी वस्तुमें अपने इष्ट धर्मको सिद्ध करते हुए अन्य धर्मोमें उदासीन हो कर वस्तुके विवेचन करनेको नय कहते हैं। जैसे यह घट है ( अस्ति घटः)। नयमें दुर्नयकी तरह एक धर्मके अतिरिक्त अन्य धर्मोका निषेध नहीं किया जाता, इसलिये नयको दुर्नय नहीं कहा जा सकता। तथा, नयमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग न होनेसे इसे प्रमाण भी नहीं कह सकते। (३) वस्तुके नाना दृष्टियोंकी अपेक्षा कथंचित् सत् रूप विवेचन करनेको प्रमाण कहते हैं, जैसे घट कथंचित् सत् है ( स्यात्कथंचित् घटः)। प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित होनेसे
और विपक्षका बाधक होनेसे इसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभावसे सत्, और दूसरे स्वभावसे असत् है, यह पहले कई बार कहा चुका है। यहाँ वस्तुके एक 'सत्' धर्मको कहा गया है। इसी प्रकार असत्, नित्य, अनित्य, वक्तव्य, अवक्तव्य, सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्म समझने चाहिये।
श्लोकमें 'तु' शब्द निश्चय अर्थमें प्रयुक्त हआ है। 'तु' शब्दका 'त्वं' के साथ सम्बन्ध लगाना चाहिये। इसलिये केवलज्ञानसे समस्त पदार्थोंको यथार्थ रीतिसे जानने वाले आपने ही नय और प्रमाणके द्वारा दुर्नयवादका निराकरण किया है। अन्य तैर्थिक लोग राग, द्वेष आदि दोषोंसे युक्त होनेके कारण यथार्थदर्शी नहीं हैं, इसलिये दुर्नयोंका निराकरण नहीं कर सकते। क्योंकि जो लोग स्वयं अनीतिके मार्गमें
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