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________________ २४० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २८ निखिलमपि त्रैलोक्यम् । "तात्स्थ्यात् तद्वयपदेशः" इति त्रैलोक्यगतजन्तुजातम् । विलुप्तं सम्यग्ज्ञानादिभावप्राणव्यपरोपणेन व्यापादितम् । तत् त्रायस्व इत्याशयः। सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः' प्रावनिकैगीयन्ते । अत एव सिद्धेष्वपि जीवव्यपदेशः। अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थे ऽभिधीयते । तेषां च दशविधप्राणधारणाभावाद् अजीवत्वप्राप्तिः। सा च विरुद्धा । तस्मात् संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादिभावधारणाद् इति सिद्धम् । दुर्नयस्वरूपं चोत्तरकाव्ये व्याख्यास्यामः ॥ इति काव्यार्थः॥ २७ ॥ । साम्प्रतं दुर्नयप्रमाणरूपणद्वारेण "प्रमाणनयैरधिगमः" इति वचनाद् जीवाजीवादितत्त्वाधिगमनिवन्धनानां प्रमाणनयानां प्रतिपादयितुः स्वामिनः स्याद्वादविरोधिदुर्नयमार्गनिराकरिष्णुरनन्यसामान्यं वचनातिशयं स्तुवन्नाह सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थों मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः । यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुनीतिपथं त्वमास्थः ॥२८॥ अर्यते परिच्छिद्यत इत्यर्थः पदार्थः। त्रिधा त्रिभिः प्रकारैः। मीयते परिच्छिद्यते । विधौ सप्तमी। कैत्रिभिः प्रकारैः इत्याह दुर्नीतिनयप्रमाणेः। नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशि लोक' ( अशेपमपि त्रैलोक्यम् ) का अर्थ सम्पूर्ण लोकके प्राणो समझना चाहिये । पूर्व आचार्योने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रको भावप्राण कहा है। अतएव सिद्धोंमें भी जीवका व्यपदेश होता है। जीव धातु प्राण धारण करनेके अर्थमें प्रयुक्त होती है । यदि दस द्रव्यप्राणोंको [ देखियं परिशिष्ट ( क )] धारण करना ही जीवका लक्षण किया जाय, तो सिद्धोंको अजीव कहना चाहिये, क्योंकि सिद्धोंके द्रव्यप्राण नहीं होते । अतएव संसारी जीव द्रव्यप्राणोंकी अपेक्षासे, और सिद्ध जीव भावप्राणोंकी अपेक्षासे जीव कहे जाते हैं । दुर्नयका स्वरूप आगेके श्लोकमें कहा जायगा ॥ यह श्लोकका अर्थ है ॥२५॥ भावार्थ-पदार्थोको सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य माननेसे एकान्तवादियोंके मतमें सुख-दुख, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष आदिको व्यवस्था नहीं बन सकती। अतएव प्रत्येक वस्तुको कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना ही युक्तियुक्त है। भाव-अभाव, द्वैत-अद्वैत, नित्य-अनित्य आदि एकान्तवादोंमें दोषोंका दिग्दर्शन समंतभद्रने अपने आप्तमीमांसा नामक ग्रंथमें विस्तारसे किया है। अब दुर्नय, नय, और प्रमाणका लक्षण कहते हुए "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्रसे जीव अजीव आदि तत्त्वोंको जानने में कारण प्रमाण और नयका प्रतिपादन करनेवाले और स्याद्वादके विरोधी दुर्नयोंका निराकरण करनेवाले भगवान्के वचनोंको असाधारणता बताते हैं श्लोकार्थ-दुर्नयसे 'पदार्थ सर्वथा सत् है,' नयसे 'पदार्थ सत् है,' और प्रमाणसे 'पदार्थ कथंचित् सत् है'-इस तरह तीन प्रकारोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप देखनेवाले आपने ही नय और प्रमाण मार्गके द्वारा दुर्नयरूप मार्ग निराकरण किया है। व्याख्यार्थ-जो जाना जाता है वह अर्थ है-पदार्थ है। पदार्थोंका दुर्नय, नय और प्रमाणसे ज्ञान किया जाता है । जिसके द्वारा पदार्थोके एक अंश को जाना जाताहो, उसे नय कहते हैं । जो नय दूषित १. सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शनसम्यकचारित्रेत्यादयो ये जीवस्य गुणास्ते भावप्राणाः । इदं प्रज्ञापनासूत्रे प्रथमपदे । २. जीव प्राणधारणे हैमधातुपारायणे भ्वादिगणे घा. ४६५ । ३. पञ्चेन्द्रियाणि श्वासोच्छ्वासआयुष्यमनोवलवचनवलशरीरबलानीति दश द्रव्यप्राणाः । ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे २-३ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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