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अन्य. यो. व्य. श्लोक २७] स्याद्वादमञ्जरी
२३९ एवं वन्धमोक्षयोरप्यसंभवः । लोकेऽपि हि य एव बद्धः स एव मुच्यते । निरन्वयनाशाभ्युपगमे चैकाधिकरणत्वाभावात् सन्तानस्य चावास्तवत्वात् कुतस्तयोः संभावनामात्रमपि ॥ परिणामिनि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्व निर्वाधमुपपद्यते ।
"परिणामोऽवस्थान्तरगमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानम् ।
न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥" इति वचनात् । पातञ्जलटीकाकारोऽप्याह-"अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः" इति । एवं सामान्यविशेपसदसदभिलाप्यानभिलाप्यैकान्तवादेष्वपि सुखदुःखाद्यभावः स्वयमभियुक्तैरभ्यूह्यः ॥
अथोत्तरार्द्धव्याख्या । एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखदुःखभोगादिव्यवहारे परैः परतीथिकैरथ च परमार्थतः शत्रुभिः। परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति । दुर्नीतिवादव्यसनासिना। नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविपयमाभिरिति नीतयो नयाः। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नयाः । तेपां वदनं परेभ्यः प्रतिपादनं दुर्नीतिवादः । तत्र यद् व्यसनम् अत्यासक्तिः औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत् दुर्नीतिवादव्यसनम् । तदेव सद्बोधशरीरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वाद् असिरिव असिः कृपाणो दुर्नीतिवाढव्यसनासिः । तेन दुर्नीतिवादन्यसनासिना करणभूतेन दुर्नयप्ररूपणहेवाकखङ्गेन । एवमित्यनुभवसिद्धं प्रकारमाह । अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् अशेषमपि जगद्
(३)क्षणिक एकांतवादमें बंध और मोक्ष भी नहीं बन सकते। लोकमें भी जो बंधता है, वही बंधनमुक्त होता हुआ देखा जाता है। प्रत्येक क्षणका निरन्वय विनाश स्वीकार करनेपर आत्माका जो क्षणवद्ध होता है, उसका क्षणमात्रमें विनाश होनेसे, वही आत्माका क्षण मुक्त नहीं कहा जा सकता। अतएव बंध और मोक्षका एकाधिकरण न होनेसे तथा क्षणसन्तानके वास्तविक न होनेसे क्षणिक एकांतवादमें बंध और मोक्षको कल्पना भी कैसे की जा सकती है?
अतएव आत्माको परिणामी मानना चाहिये। आत्माको परिणामी माननेसे कोई भी बाधा नहीं आती। कहा भी है
"एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त करनेको परिणाम कहते हैं। परिणाम न सर्वथा अवस्थानरूप होता है और न सर्वथा विनाशरूप-ऐसा विद्वानोंने माना है।"
पातंजल टीकाकारने भी कहा है-"अवस्थित द्रव्यमें पहले धर्मके नाश होनेपर दूसरे धर्मकी उत्पत्तिको परिणाम कहते हैं।" इसी प्रकार एकान्त सामान्य-विशेप, एकान्त सत्-असत, और एकान्त वाच्य-अवाच्य वादोंमें भी सुख-दुखका अभाव आदि दोष स्वयं जान लेने चाहिये।
इस प्रकार एकान्तवादियोंके मतमें सुख, दुखके भोग आदिका व्यवहार सिद्ध न होनेपर भी परवादीशत्रओंने दुर्नयवादमें अत्यासक्ति रूप खड्गसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप भावप्राणोंका विच्छेद करके सम्पूर्ण जगत्का नाश कर रक्खा है। जिस प्रकार शत्रु लोग खड्गके द्वारा समस्त संसारका संहार करते हैं, उसी प्रकार परवादियोंने दुर्नयवादका प्ररूपण करके सत् ज्ञानका नाश कर दिया है। इसलिये हे भगवन, आप परवादी-शत्रुओंसे संसारकी रक्षा करो। वस्तुके एकदेश जाननेको नय, और खोटे नयोंको दुर्नय कहते हैं। श्लोकमें 'अपि' शब्दको 'अशेष' के साथ लगाना चाहिये । जिस प्रकार 'मंच रोते हैं। (मंचाः क्रोशन्ति ) इस वाक्यका अर्थ होता है कि मंचपर बैठे हुए पुरुष रोते हैं, उसी तरह यहाँ 'सम्पूर्ण
१. पातञ्जलयोगसूत्रे ३-१३ व्यासः।