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________________ २३८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लो. २७ सुखानुभवः। एवं पापोपादानक्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य दुःखसंवेदनमस्तु । एवं चान्यः क्रियाकारी अन्यश्च तत्फलभोक्ता इति असमञ्जसमापद्यते । अथ “यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कर्पासे रक्तता यथा" ।। इति वचनाद् नाससञ्जसमित्यपि वाङ्मात्रम्, सन्तानवासनयोरवास्तवत्वेन प्रागेव निर्लोठितत्वात् ।। ___ तथा पुण्यपापे अपि न घटेते । तयोहि अर्थक्रिया सुखदुःखोपभोगः। तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता । ततोऽर्थक्रियाकारित्वाभावात् तयोरप्यघटमानत्वम् । किंचानित्यः क्षणमात्रस्थायी । तस्मिंश्च क्षणे उत्पत्तिमात्रन्यनत्वात् तस्य कुतः पुण्यपापोपादानक्रियार्जनम् ? द्वितीयादिक्षणेषु चावस्थातुमेव न लभते । पुण्यपापोपादानक्रियाभावे च पुण्यपापे कुतः, निर्मूलत्वात् ? तदसत्त्वे च कुतस्तनः सुखदुःखभोगः। आस्तां वा कथंचिदेतत् । तथापि पूर्वक्षणसदृशेनोत्तरक्षणेन भवितव्यम् , उपादानानुरूपत्वाद् उपादेयस्य । ततः पूर्वक्षणाद् दुःखितात् उत्तरक्षणः कथं सुखित उत्पद्यते, कथं च सुखितात् ततः स दुःखितः स्यात् , विसदृशभागतापत्तेः ? एवं पुण्यपापादावपि । तस्माद्यत्किञ्चिदेतत् ॥ फल रूप सुखका अनुभव, तथा पापोपार्जन करनेवाली क्रिया करनेवाले आत्माका निरन्वय विनाश होनेसे दुखका अनुभव नहीं हो सकता । तथा पदार्थों का निरन्वय विनाश माननेसे एकको कर्ता और दूसरेको भोक्ता मानना पड़ेगा। शंका-"जिस प्रकार कपासके वीजमें लाल रंग लगानेसे बीजका फल भी लाल रंगका होता है, उसी तरह जिस संतानमें कर्मवासना रहती है, उसी सन्तानमें कर्मवासनाका फल रहता है।" अतएव सन्तानके प्रवाह माननेसे काम चल जाता है, इस तरह आत्माके माननेकी आवश्यकता नहीं रहती। समाधान-यह ठीक नहीं। सन्तान और वासना अवास्तविक हैं, यह हम ( १८ वें श्लोककी व्याख्यामें ) प्रतिपादन कर चुके हैं। (२) एकान्त अनित्यवादमें पुण्य-पाप भी नहीं बन सकते । सुख और दुखका भोग क्रमसे पुण्य और पापकी अर्थक्रियायें हैं। यह पुण्य-पापकी अर्थक्रिया एकान्त क्षणिक पक्षमें नहीं बन सकती, यह हम पहले कह आये हैं। अतएव क्षणिकवादमें अर्थक्रियाकारित्वके अभावमें पुण्य-पाप भी सिद्ध नहीं होते । तथा, क्षणिकवादियोंके मतमें प्रत्येक पदार्थ केवल एक क्षणके लिये ठहरता है। इस क्षणमें पदार्थ अपनी उत्पत्तिमें लगे रहते है, इसलिये पुण्य और पापको उपार्जन नहीं कर सकते । यदि दूसरे, तीसरे आदि क्षणमें पुण्य ओर पापका उपार्जन स्वीकार करो, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि क्षणिकवादियोंके मतमें प्रथम क्षणके बाद पदार्थोंका स्थित रहना ही संभव नहीं। अतएव, पुण्य कर्म और पाप कर्मके उपार्जन करनेको शुभ और अशुभ परिणति रूप क्रियाओंके अभावमें पुण्यरूप और पापरूप द्रव्यकर्मोंका सद्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि शुभाशुभ परिणामरूप निमित्तोंका अभाव होता है, और पापरूप द्रव्यकर्मके अभावमें सुख-दुःखका अनुभव कैसे हो सकता है ? यदि किसी प्रकार क्षणिकवादियोंके मतमें सुख-दुखके अनुभवका सद्भाव मान भी लिया जाय, फिर भी ( उनके मतमें पूर्वक्षण उत्तरक्षणका उपादान कारण होनेसे ) उत्तरक्षण उपादानभूत पूर्वक्षणके सदृश होना चाहिये, क्योंकि उपादेय-परिणाम-उपादान-परिणामी-के सदृश होता है । उपादेयके उपादानके सदृश होनेसे दुखी आत्मरूप पूर्वक्षणसे सुखी आत्मरूप उत्तरक्षणकी, तथा सुखी आत्मरूप पूर्वक्षणसे दुखी आत्मरूप उत्तरक्षणकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? क्योंकि उत्तरक्षणरूप परिणामका अपने उपादानसे विसदृश होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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