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________________ २३७ अन्य. यो. व्य. श्लोक २७] स्याद्वादमञ्जरो क्रमेण अक्रमेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम् । अत एवोक्तं न पुण्यपापे इति । पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं व र्म, पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म । ते अपि न घटेते, प्रागुक्तनीतेः ।। ___ तथा न वन्धमोक्षौ । वन्धः कर्मपुद्गलैः सह प्रतिप्रदेशमात्मनो वह्नययःपिण्डवद् अन्योऽन्यसंश्लेपः । मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयः । तावप्येकान्तनित्ये न स्याताम् । वन्धो हि संयोगविशेषः । स च "अप्राप्तानां प्राप्तिः" इतिलक्षणः। प्राकालभाविनी अप्राप्तिरन्यावस्था, उत्तरकालभाविनी प्राप्तिश्चान्या । तदनयोरप्यवस्थाभेददोषो दुस्तरः। कथं चैकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको बन्धनसंयोगः । बन्धनसंयोगाच्च प्राक् किं नायं मुक्तोऽभवत् । किंच तेन बन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति न वा ? अनुभवति चेत्, चर्मादिवदनित्यः । नानुभवति चेत् , निर्विकारत्वे सता असता वा तेन गगनस्येव न कोऽप्यस्य विशेष इति बन्धवंफल्याद् नित्यमुक्त एव स्यात् । ततश्च विशीर्णा जगति वन्धमोक्षव्यवस्था। तथा च पठन्ति "वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः खतुल्यश्चेदसत्फलः" । बन्धानुपपत्तौ मोक्षस्याप्यनुपपत्तिर्वन्धनविच्छेदपर्यायत्वाद् मुक्तिशब्दस्येति ॥ ____एवमनित्यैकान्तवादेऽपि सुखदुःखाद्यनुपपत्तिः । अनित्यं हि अत्यन्तोच्छेदधर्मकम् । तथाभूते चात्मनि पुण्योपादानक्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलभूत हो सकती। पदार्थोंके नित्य माननेमें उनमें क्रम-क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रिया नहीं हो सकती, यह पहले कहा जा चुका है। इसीलिये कहा है कि दान आदिसे होनेवाले शुभ कर्म रूप पुण्य, और हिंसा आदिसे होनेवाले अशुभ कर्म रूप पाप-दोनों एकान्त नित्य पक्षमें नहीं बन सकते । (३) अग्नि और लोहेकी तरह आत्माके प्रदेशोंके कर्म पुद्गलोंके साथ परस्पर सम्मिश्रण हो जानेको बंध और सम्पूर्ण कर्मोके क्षय हो जानेको मोक्ष कहते हैं । यह वन्ध और मोक्षको व्यवस्था भी एकान्त नित्यवादमें नहीं बन सकती । संयोगविशेषको वन्ध कहते हैं । "अप्राप्त पदार्थोकी प्राप्तिको" संयोग कहते है। यह संयोग एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त करनेमें ही संभव हो सकता है। अतएव नित्य आत्मामें अवस्था भेद होनेसे बंध और मोक्ष नहीं बन सकते । तथा, एकान्त नित्य माननेपर उसके साथ बंधक कर्मोंका बंध नहीं हो सकता । अतएव बंधक कर्मोके साथ होनेवाले संयोगके पहले आत्माको मुक्त मानना चाहिये । तथा बंधक कर्मके कारण आत्मामें कोई विकार होता है, या नहीं? यदि बंध होनेसे आत्मामें कोई विकार होता है, तो आत्माको चमड़ेकी तरह अनित्य मानना चाहिये। यदि बंध होनेपर भी आत्मा अविकृत रहती है, तो निर्विकार आकाशको तरह बंधके होने अथवा न होनेसे आत्मामें कोई भी विकार नहीं आ सकता, अतएव बंधके निष्फल होनेके कारण आत्माको सदा मुक्त मानना चाहिये। अतएव सर्वथा एकान्तवादमें बंध और मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती। कहा भी है "वर्षा और गरमीके कारण चमड़ेमें ही परिवर्तन होता है, आकाशमें कोई परिवर्तन नहीं देखा जाता। अतएव यदि आत्मा चमड़ेके समान है, तो उसे अनित्य मानना चाहिये; यदि आत्मा आकाशकी तरह है, तो उसमें बंध नहीं मानना चाहिये ।" ___ आत्माके बन्ध न होनेसे आत्माके मोक्ष भी नहीं हो सकता। क्योंकि बन्धनके नष्ट होनेको ही मोक्ष कहते हैं। (१) एकान्त अनित्यवाद माननेसे भी सुख-दुख नहीं बन सकते । सर्वथा रूपसे नष्ट होनेको अनित्य कहते हैं । अनित्य आत्मामें पुण्योपार्जन करनेवाली क्रिया करनेवाले आत्माका निरन्वय नाश होनेसे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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