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________________ २३४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २६ क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाद् अर्थक्रियाकारित्वस्य च भावलक्षणत्वात् , ततोऽर्थक्रिया व्यावर्तमाना स्वक्रोडीकृतां सत्तां व्यावतयेदिति क्षणिकसिद्धिः । न हि नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां क्रमेण प्रवर्तयितुमुत्सहते, पूर्वार्थक्रियाकरणस्वभावोपमर्दद्वारेणोत्तरक्रियायां क्रमेण प्रवृत्तेः, अन्यथा पूर्व क्रियाकरणाविरामप्रसङ्गात् । तत्स्वभावप्रच्यवे च नित्यता प्रयाति, अतादवस्थ्यस्यानित्यतालक्षणत्वात् । अथ नित्योऽपि क्रमवर्तिनं सहकारिकारणमर्थमुदीक्षमाणस्तावदासीत् , पश्चात् तमासाद्य क्रमेण कार्य कुर्यादिति चेत् । न । सहकारिकारणस्य नित्येऽकिञ्चित्करस्यापि प्रतीक्षणेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । नापि यौगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियाः कुरुते अध्यक्षविरोधात् । न ह्येककालं सकलाः क्रियाः प्रारभमाणः कश्चिदुपलभ्यते । करोतु वा । तथाप्याद्यक्षण एव सकलक्रियापरिसमाप्तेद्वितीयादिक्षणेषु अकुवार्णस्यानित्यता बलाद् आढौकते, करणाकरणयोरेकस्मिन् विरोधाद् इति ॥ तदेवमेकान्तद्वयेऽपि ये हेतवस्ते युक्तिसाम्याद् विरुद्धं न व्यभिचरन्तीत्यविचारितरमणीयतया मुग्धजनस्य ध्यान्ध्यं' चोत्पादयन्तीति विरुद्धा व्यभिचारिणोऽनैकान्तिका अर्थक्रियाकारित्व (प्रयोजनभूतता) ही सत्का लक्षण है। पदार्थों को अक्षणिक- कूटस्थ नित्य-मानने में उनमें क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रिया होनेमें विरोध उपस्थित होनेसे; तथा अर्थक्रियाका कर्ता होना, पदार्थका स्वरूप होनेसे, उस नित्य पदार्थसे पृथक होनेवाली अर्थक्रिया अपने द्वारा व्याप्त नित्य पदार्थको सत्ताको उस पदाथसे पृथक कर देगी-अर्थक्रियाका पदार्थ में अभाव हो जानेसे पदार्थका अस्तित्व हो न रहेगा। इस प्रकार क्षणिक पदार्थके-पदार्थके क्षणिकत्वके-अनित्यत्वको सिद्धि होती है। नित्य पदार्थ अपनी अर्थक्रियाको क्रमसे करनेमें समर्थ नहीं होता । क्योंकि पदार्थके प्रयोजनभूत पूर्वकालवर्ती कार्यको करनेके स्वभावके विनाश द्वारा पदार्थके प्रयोजनभूत उत्तरकालवर्ती कार्यको उत्पन्न करनेकी क्रिया करनेकी पदार्थकी प्रवृत्ति होती है। पूर्व कार्योत्पादन क्रिया करनेके स्वभावका यदि विनाश न किया गया तो पूर्वकालवर्ती कार्य करनेकी क्रियाका अंत न होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है । पूर्व कार्योत्पादन क्रिया करनेके स्वभावका नाश होनेपर पदार्थकी नित्यता नष्ट हो जाती है, क्योंकि पदार्थकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओंका क्रमसे अभाव होते रहना ही अनित्यताका लक्षण है। यदि कहो कि 'पदार्थ नित्य होनेपर भी क्रमवर्ती सहकारिकारणभूत अर्थकी अपेक्षा करता हुआ रहता है और बादमें उस सहकारिकारणभूत पदार्थको प्राप्त करके क्रमसे कार्य करता है तो यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि नित्य पदार्थक विषयमें-नित्य पदार्थको अपनी अर्थक्रिया करने में प्रवृत्त करनेके विषयमें -सहकारिकारणभूत पदार्थकी अपेक्षा करने पर, वह सहकारिकारणभूत पदार्थ भी नित्य होनेसे अकिंचित्कर होनेके कारण, उसे किंचित्कर बनानेके लिये, अन्य सहकारिकारणभूत पदार्थकी अपेक्षा करनी होगी। इस प्रकार अन्य-अन्य सहकारिकारणभूत पदार्थोकी अपेक्षा करनेसे अनवस्था नामक दोष आता है। नित्य पदार्थ एक साथ (युगपत्) भी अर्थक्रिया नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्यक्षसे विरोध आता है। कारण कि अर्थक्रिया सदा क्रमसे होती है, कभी एक समयमें होती हुई नहीं देखी जाती। यदि सम्पूर्ण अर्थक्रियाओंका एक क्षणमें होना स्वीकार करो तो सम्पूर्ण क्रियाओंके प्रथम क्षणमें समाप्त हो जानेसे द्वितीय क्षण आदिमें न करनेवाली अनित्यता जबरन आकर उपस्थित हो जायेगी; क्योंकि क्रिया और अक्रिया दोनों एक नित्य पदार्थमें नहीं रह सकते। इस प्रकार उक्त दोनों पक्षोंमें नित्य और अनित्यवादको सिद्ध करनेके.लिये जो 'सत्त्व' हेतु दिया गया है, वह विरुद्ध हेतु है । इस प्रकारके हेतु, जब तक उनका विचार नहीं किया जाता, तभी तक सुन्दर मालूम होते हैं, इसलिये ये हेतु भोले लोगोंकी बुद्धिमें जड़ता पैदा करनेवाले होनेसे अनैकान्तिक हेतु है। यहाँ नित्य और १. धियः मान्द्यम् ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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