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अन्य. यो. व्य. श्लोक २६ ] स्याद्वादमञ्जरी
२३५ इति । अत्र च नित्यानित्यैकान्तपक्षप्रतिक्षेप एवोक्तः । उपलक्षणत्वाच सामान्यविशेषाधेकान्तवादा अपि मिथस्तुल्यदोपतया विरुद्धा व्यभिचारिण एव हेतूनुपस्पृशन्तीति परिभावनीयम् ॥ ___अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते । परस्परेत्यादि । एवं च कण्टकेषु क्षुद्रशत्रुष्वेकान्तवादिषु परस्परध्वंसिषु सत्सु परस्परस्मात् ध्वंसन्ते विनाशमुपयान्तीत्येवंशीलाः सुन्दोपसुन्दवदिति परस्परध्वंसिनः। तेषु हे जिन ते तव शासनं स्याद्वादप्ररूपणनिपुणं द्वादशाङ्गीरूपं प्रवचनं पराभिभावुकानां कण्टकानां स्वयमुच्छिन्नत्वेनैवाभावाद् अधृष्यमपराभवनीयम् । "शक्ताह कृताच" इति कृत्यविधानाद् धर्षितुमशक्यम् धर्षितुमनहँ वा। जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । यथा कश्चिन्महाराजः पीवरपुण्यपरीपाकः परस्परं विगृह्य स्वयमेव क्षयमुपेयिवत्सु द्विषत्सु अयत्नसिद्धनिष्कण्टकत्वं समृद्धं राज्यमुपभुञ्जानः सर्वोत्कृष्टो भवति एवं त्वच्छासनमपि ॥ इति काव्यार्थः ॥२६॥ ___अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमभिहितम् । इदानी कतिपयतद्विशेषान् नामग्राहं दर्शयंस्तत्प्ररूपकाणामसद्भूतोद्भावकतयोवृत्ततथाविधरिपुजनजनितोप
अनित्य पक्षका हो खंडन किया गया है । सामान्य-विशेष, वाच्य-अवाच्य और सत्-असत् वादी भी परस्पर एक जैसे दोप देते है, इसलिये इन एकान्तवादोंको भी विरुद्ध समझना चाहिये।
एक दूसरेका नाश करनेवाले सुन्द और उपसुन्द नामके दो राक्षस भाइयोंके समान क्षुद्र शत्रु एकान्तवादी रूप कण्टकोंका परस्पर नाश हो जानेपर स्याद्वादका प्ररूपण करनेवाला आपका द्वादशांग प्रवचन किसीके द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता। (सुन्द और उपसुन्द नामके दो राक्षस भाई थे। उनको ब्रह्माका वरदान था कि उनकी मृत्यु एक दूसरेके द्वारा होगी। इस वरदानसे मस्त होकर दोनों भाइयोंने प्रजाको पीडा देना आरम्भ कर दिया। यह देखकर देवोंने स्वर्गसे तिलोत्तमाको भेजा। तिलोत्तमाको देखकर दोनों भाई अपनी सुध भूलकर उसे अपनी स्त्री बनानेकी चेष्टा करने लगे। दोनोंमें परस्पर लड़ाई हुई, और अन्तमें दोनों भाई एक दूसरेके हाथसे मारे गये) । यहाँ "शक्तार्हे कृत्याश्च" सूत्रसे क्यप् प्रत्यय होनेपर 'अधृष्य' का अर्थ होता है कि जिसका किसीसे पराभव न किया जा सके। जिस प्रकार कोई पुण्यशालो महाराजा अपने शत्रुओंके परस्पर लड़कर मर जानेपर विना प्रयत्नके ही निष्कंटक राज्यका उपभोग करता है, उसी प्रकार आपका शासन एकान्तवादियोंके परस्पर लड़कर नष्ट हो जानेपर विजयी होता है । यह श्लोकका अर्थ है ॥२६॥
भावार्थ-जिस प्रकार कोई पुण्यशाली राजा अपनेशत्रुओंके आपसमें लड़कर नष्ट हो जानेपर अखण्ड राज्यका उपभोग करता है, उसी तरह एकान्तवादी लोग एक दूसरेके सिद्धांतोंमें दोष देकर एक दूसरेके मतोंका खण्डन कर देते हैं, इसलिये मिथ्यादर्शन रूप समस्त एकान्तवादोंका समन्वय करनेवाला जैन शासन ही सर्वमान्य हो सकता है।
ऊपरके श्लोकोंमें सामान्य रूपसे नित्य, अनित्य आदि एकान्तवादोंमें दोष दिखाये गये हैं। अब एकान्तवादियोंके कुछ विशेष दोषोंका दिग्दर्शन कराते हैं। जिस प्रकार प्रजाको पीड़ित करनेवाले शत्रुओंसे
१. सुन्दोपसुन्दनामानौ राक्षसौ द्वौ भ्रातरौ ब्रह्मणः सकाशात् वरं लब्धवन्तौ यत् आवयोर्मुत्युः परस्परादस्तु
नान्यस्मात् । तथेत्युक्ते ब्रह्मणा मत्तौ तौ त्रिलोकी पीडयामासतुः । अथ देवप्रेषितां तिलोत्तमामुपलभ्य तदर्थ मिथो युध्यमानावनियेताम् । एवमेकान्तवादिनः स्वतत्त्वसिद्धयर्थं परस्परं विवदमाना विनश्यन्ति ।
ततश्चानेकान्तवादो जयति । २. हैमसूत्रे ५-४-३५ ।