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________________ २३३ अन्य. यो. व्य. श्लोक २६] स्याद्वादमञ्जरी इदानीं नित्यानित्यपक्षयोः परस्परदूषणप्रकाशनवद्धलक्षतया वैरायमाणयोरितरेतरोदीरितविविधहेतुहेतिसंनिपातसंजातविनिपातयोरयत्नसिद्धप्रतिपक्षप्रतिक्षेपस्य सर्वोत्कर्षमाह य एव दोपाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समास्त एव । परस्परध्वंसिपु कण्टकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते ॥ २६ ॥ किलेति निश्चये। य एव नित्यवादे नित्यैकान्तवादे दोषा अनित्यैकान्तवादिभिः प्रसज्जिताः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियानुपपत्त्यादयः, त एव विनाशवादेऽपि क्षणिकैकान्तवादेऽपि समाः तुल्याः, नित्यैकान्तवादिभिः प्रसज्यमाना अन्यूनाधिकाः॥ तथाहि-नित्यवादी प्रमाणयति । सर्वं नित्यं सत्त्वात् । क्षणिके सदसत्कालयोरर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणं सत्त्वं नावस्थां बध्नातोति ततो निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते । तथाहि-क्षणिकोऽर्थः सन्वा कार्यं कुर्याद् असन्वा ? गत्यन्तराभावात् । न तावदाद्यः पक्षः, समसमयवर्तिनि व्यापारायोगात् सकलभावानां परस्परं कार्यकारणभावप्राप्त्यातिप्रसङ्गाच्च । नापि द्वितीयः पक्षः क्षोदं क्षमते, असतः कार्यकारणशक्तिविकलत्वात् ; अन्यथा शशविषाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहेरन् , विशेषाभावात् इति ॥ अनित्यवादी नित्यवादिनं प्रति पुनरेवं प्रमाणयति । सर्वं क्षणिकं सत्त्वात् । अक्षणिके एकान्त नित्य और एकान्त अनित्यवादके माननेवाले एक दूसरेके दोष दिखाकर परस्पर लड़ते हैं, और एक दूसरेके सिद्धांतोंका खंडन करनेके लिये नाना प्रकारके हेतुरूपी शस्त्रोंके प्रहारसे गिर पड़ते हैं, अतएव प्रयत्नके विना ही भगवान्के शासनकी सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है श्लोकार्थ-नित्य एकान्तवादमें जो दोष आते हैं, वे ही दोष अनित्य एकांतवादमें समान रूपसे आते हैं । जव क्षुद्र शत्रु एक दूसरेका विध्वंस करनेमें लगे रहते हैं तब जिनेन्द्र भगवान्का अजेय शासन विजयी होता है। व्याख्यार्थ-यहाँ 'किल' शब्द निश्चय अर्थमें है। 'नित्यवादियोंके मतमें क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रिया नहीं हो सकती' इस प्रकार जो अनित्यवादियोंने एकान्त नित्य पक्षमें दूषण दिये थे, वे सब दोष अनित्यवादियोंके पक्षमें भी आते हैं। नित्यवादी-'समस्त पदार्थ नित्य हैं, सद्रप होनेसे ।' क्षणिक पदार्थोंकी भूत, भविष्य और वर्तमान काल में कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि अपने प्रयोजन ( कार्य ) की उत्पत्ति करने में विरोध उपस्थित होनेसे, क्षणिक पदार्थ ( कार्यकी उत्पत्तिके लिये ) स्थिरत्वको-एक क्षणसे अधिक काल तककी स्थितिकोधारण नहीं करता । अतः वह क्षणिकत्वसे निवृत्त होता हुआ, अन्य किसीकी शरण प्राप्ति न होनेसे नित्यत्वमें आकर मिल जाता है । तथाहि-प्रश्न होता है कि क्षणिक पदार्थ अस्तिरूप होता हुआ अपना कार्य करता है या अपना अभाव होनेपर अपना कार्य करता है ? 'क्षण मात्र रूप अपने अस्तित्व कालमें वह अपना कार्य करता है', यह प्रथम पक्ष ठीक नहीं । क्योंकि जिस कालमें क्षणिक पदार्थ उत्पन्न होने जाता है', उसी कालमें उत्पन्न होनेवाले कार्यकी उत्पत्तिके लिये क्षणिक पदार्थमें उत्पत्ति क्रियाका होना घटित नहीं होता; तथा एक-एक कालमें होनेवाले पदार्थों में कार्यकारण भाव होनेसे, समकालवर्ती सभी पदार्थों में परस्पर कार्यकारण भाव होनेका अतिप्रसंग उपस्थित हो जाता है । 'क्षणिक पदार्थका अभाव होनेपर वह पदार्थ अपना कार्य करता है', यह दूसरा पक्ष भी खरा नहीं उतरता । क्योंकि जिसका सद्भाव नहीं होता उसमें अपना कार्य करनेकी शक्तिका अभाव होता है। यदि ऐसी बात न हो तो शशविषाण आदि भी कार्य करनेके लिये उत्साही हो जायेंगे क्योंकि असत् पदार्थ और शशविषाणमें भेद नहीं है। अनित्यवादी-(नित्य एकांतवादीका खंडन करते हुए) 'सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं; सद्रूप होनेसे।'
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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