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________________ २३० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २४ उदाहरण-चंद्रकान्तमणि रूप दाहके प्रतिबंधका सद्भाव होनेपर अग्निसे पदार्थमें दहन क्रिया उत्पन्न नहीं होती इसलिये चंद्रकांतमणि और पदार्थगत अग्निजन्य दहनक्रियामें प्रतिबध्य-प्रतिबंधक भावरूप विरोधका होना युक्त है। जिस प्रकार चंद्रकांतमणिके अस्तित्वकालमें पदार्थगत अग्निजन्य दहन क्रियाका प्रतिबंध होता है, उसी प्रकार पदार्थके स्वरूपसे अस्तिरूप होनेके कालमें पररूपसे नास्तिरूप होनेमें प्रतिबंध नहीं होता। क्योंकि स्वरूपसे अस्तित्वकाल में भी पररूप आदिसे नास्तित्व अनुभवसिद्ध है। एक पदार्थ में अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्म नहीं रहते इसकी सिद्धि करते हुए शीत और उष्ण इन धर्मोके एक पदार्थमें न रहनेका जो दृष्टांत दिया है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि एक धूपपात्र आदिमें अवच्छेदकके भेदसे शीत और उष्णका उपलम्भ होनेसे शीत और उष्णमें विरोधकी सिद्धि नहीं होती। [धूप जलानेसे गर्म बना हुआ धूपपात्र बर्फको दृष्टि से गर्म होता है और प्रखर अग्निकी दृष्टिसे शीत होता है। अतः धूपपात्रमें एक साथ शीत धर्मकी और उष्ण धर्मको प्राप्ति होनेसे उन दोनों धर्मोमें विरोध नहीं हो सकता।] जिस प्रकार एक वृक्ष आदिमें चलत्व और अचलत्वको, एक घट आदिमें रक्तत्व और अरक्तत्वकी और एक शरीर आदिमें आवृतत्व और अनावृतत्वकी उपलब्धि होनेसे, उन युगलधर्मों में विरोधका अभाव होता है, उसी प्रकार सत्त्व (अस्तित्व) और असत्त्व ( नास्तित्व ) इन दोनों धर्मों के एक पदार्थ में पाये जानेसे उनमें भी विरोधका अभाव होता है। (२) इस पूर्वोक्त युक्तिसिद्ध कथनसे सत्त्व धर्मके और असत्त्व धर्मके भिन्नाधिकरणत्वका-अर्थात् उनके अधिकरण भिन्न भिन्न होते हैं, इस कथनका-परिहार हो गया; क्योंकि सत्त्व धर्म और असत्त्व धर्मको एकाधिकरणता अनुभवसे सिद्ध है। (३) जो अनवस्था नामक दोष स्याद्वादमें बताया गया है, वह दोष भी अनेकान्तवादियोंके नहीं है। क्योंकि पदार्थका अनन्तधर्मात्मकत्व प्रमाणोंसे ज्ञात होनेके कारण, अनंतधर्मात्मक पदार्थको स्वयं स्वीकार करनेसे अप्रामाणिक पदार्थपरंपराको परिकल्पनाका अभाव होता है। कहनेका अभिप्राय यह है : स्वरूपसे अस्तित्व धर्मका और पररूपसे नास्तित्व धर्मका पदार्थके साथ जब कथंचिततादात्म्य है, तब अस्तित्व धर्म स्वरूपसे अस्तिरूप है और पररूपसे नास्तिरूप है। तथा पररूपसे नास्तित्व अपने रूपसे अस्तिरूप है और पररूपसे नास्तिरूप है, यह कहनेकी, और ये दोनों स्वरूप भी स्वरूपसे अस्तिरूप और पररूपसे नास्तिरूप है, यह कहनेको आवश्यकता न होनेसे अप्रामाणिक पदार्थपरंपराकी परिकल्पना करनेकी आवश्यकता नहीं है । (४) स्वरूपसे अस्तित्व धर्मका और पररूपसे ना स्तित्व धर्मका एक पदार्थके साथ कथंचित्तादात्म्यसंबंध होनेसे पदार्थका अस्तित्व जिस रूपसे होता है, उसी रूपसे नास्तित्वके होनेका, और नास्तित्व जिस रूपसे होता है उसी रूपसे अस्तित्वके होनेका प्रसंग उपस्थित न होनेसे संकर दोष नहीं आता। (५) स्वरूपसे अस्तित्व धर्मका और पररूपसे नास्तित्व धर्मका एक पदार्थके साथ कथंचित्तादात्म्यसंबंध होनेसे पदार्थका अस्तित्व धर्म जिस रूपसे होता है उस रूपसे नास्तित्व ही होगा, अस्तित्व नहीं, और नास्तित्व धर्म जिस रूपसे होता है उस रूपसे अस्तित्व ही होगा, नास्तित्व नहीं, इस प्रकारसे व्यतिरेक दोष नहीं आता। (६) स्वरूपसे अस्तित्वका और पररूपसे नास्तित्वका एक ही पदार्थमें सद्भाव होनेके कारण वस्तु सदसदात्मक होनेसे पदार्थ सद्रूप है या असद्रूप है ? इस प्रकार उभयकोटिक ज्ञानका अभाव होनेसे अनेकान्तवादमें संशय नामक दोष भी नहीं आता। (७) संशयका अभाव होनेसे अर्थात् पदार्थ सदसदात्मक ही हैं इस प्रकारके निश्चयका सद्भाव होनेसे अनिश्चयरूप अप्रतिपत्ति नामक दोष भी नहीं होता, और (८) अप्रतिपत्ति नामक दोषका अभाव होनेसे अर्थात् वस्तुके सदसदात्मकत्वरूप स्वरूपके निश्चयके सद्भावसे अनेकांतवादमें वस्तुव्यवस्थाहानि नामक दोष भी नहीं आता। जिस पदार्थकी अनुभवसे सिद्धि होती है उसके विषयमें कोई भी दोष नहीं आता। जिस पदार्थको सिद्धि अनुभवसे नहीं होती; उसमें दोष आते हैं।' एकान्तवादकी जातिसे स्याद्वादकी जाति भिन्न है, अतएव स्याद्वादमें इन दोषोंके लिये स्थान नहीं है, अतः स्याद्वादके मर्मज्ञोंको उन उपपत्तियोंके द्वारा उन दोषोंको दूर कर देना चाहिये। क्योंकि स्वतन्त्र १. प्रोफेसर एम० जी० कोठारीके सौजन्यसे ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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