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________________ २३१ अन्य. यो. व्य. श्लोक २५ ] स्थाद्वादमञ्जरी __अथानेकान्तवादस्य सर्वद्रव्यपर्यायव्यापित्वेऽपि मूलभेदापेक्षया चातुर्विध्याभिधानद्वारेण भगवतस्तत्त्वामृतरसास्वादसौहित्यमुपवर्णयन्नाह स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव । विपश्चितां नाथ निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ॥२५॥ स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकमष्टास्वपि पदेषु योज्यम् । तदेव अधिकृतमेवैकं वस्तु स्यात् कथञ्चिद् नाशि विनशनशीलमनित्यमित्यर्थः । स्यान्नित्यम् अविनाशिधर्मीत्यर्थः । एतावता नित्यानित्यलक्षणमेकं विधानम् । तथा स्यात् सदृशमनुवृत्तिहेतुसामान्यरूपम् । स्याद् विरूपं विविधरूपम् विसदृशपरिणामात्मकं व्यावृत्तिहेतुविशेषरूपमित्यर्थः । अनेन सामान्य होनेके कारण निरपेक्ष विधिरूप सामान्य तथा प्रतिषेध रूप विशेषमें ही उन दोषोंको स्थान मिलता है । अथवा 'विरोध' शब्द यहाँ दोपका वाचक है । जैसे, विरुद्ध आचरण करता है। यहाँ 'विरुद्ध' शब्दका अर्थ 'दुष्ट' है। अतएव विरोधों-विरोध, वैयधिकरण्य आदि दोपों से भयभीत, यह अर्थ करना चाहिये । इस प्रकार 'विरोध' इस सामान्य शब्दसे सभी दोपोंका ग्रहण हो जाता है । यह श्लोकका अर्थ है ॥ २४ ॥ भावार्थ-प्रत्येक वस्तुमें अनंत धर्म मौजूद हैं। प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सत् रूप, और दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत् रूप है। वस्तुके अस्तित्व और नास्तित्व धर्मोंका एक साथ कथन नहीं कहा जा सकता, इसलिये प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षासे अवक्तव्य भी है। किसी वस्तुमै अविरोध भावसे अस्तित्व और नास्तित्वकी कल्पना करनेको सप्तभंगी कहते हैं (प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगो)। वस्तुमें अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरुद्ध धर्मोकी कल्पना किसी अपेक्षाको लेकर ही की जाती है। अतएव स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षा वस्तु कथंचित अस्ति है, और परद्रव्य आदिकी अपेक्षा वस्तु कथंचित् नास्ति है। इसीलिये सप्तभंगीवादमे विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक दोषोंके लिये कोई अवकाश नहीं है। विरोध आदि दोषोंके निराकरण करनेसे शांकरभाष्य और सर्वदर्शनसंग्रहमें शंकर और माधव आचार्यों द्वारा प्रतिपादित विरोध, संशय आदि दोषोंका भी परिहार हो जाता है। क्योंकि वस्तुमें अस्तित्व और नास्तित्व धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंको लेकर ही माने गये हैं। कारण कि जिस अपेक्षासे वस्तु अस्ति है, उसी अपेक्षासे स्याद्वादियोंने वस्तुको नास्ति स्वीकार नहीं किया है। अनेकान्तवाद सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंमें रहता है, परन्तु मुख्य भेदोंको अपेक्षा स्यात् नित्य, स्यात् अनित्यः स्यात सामान्य, स्यात् विशेप: स्यात् वाच्य, स्यात् अवाच्य; स्यात् सत्, स्यात् असत्के भेदसे अनेकांतके चार भेद बताये गये हैं श्लोकार्थ-हे विद्वानोंके शिरोमणि ! अपने अनेकान्त रूपी अमृतको पीकर प्रत्येक वस्तुको कथंचित् अनित्य, कथंचित् नित्य; कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष; कथंचित् वाच्य, कथंचित् अवाच्य; कथंचित् सत् और कथंचित् असत् प्रतिपादन किया है। व्याख्यार्थ-'स्यात्' शब्द अनेकांतका सूचक है । उसे नित्य, अनित्य आदि आठों वचनोंके साथ लगाना चाहिये । (१) प्रत्येक वस्तु विनाशी होनेके कारण कथंचित् अनित्य, और अविनाशी होनेके कारण कथंचित् नित्य है। (२) प्रत्येक वस्तु सामान्य रूप होनेसे कथंचित् सामान्य, और विशेप रूप होनेसे कथंचित् विशेप है। (३) प्रत्येक पदार्थ वक्तव्य होनेसे कथंचित् वाच्य, और अवक्तव्य होनेसे कथंचित १ तत्त्वार्थराजवार्तिक पृ० २४ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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