________________
अन्य. यो. व्य. श्लोक २४]
स्याद्वादमञ्जरी
२२९
भिन्नरूपसे प्रतीत नहीं होती-यह वात नहीं है। एकत्वरूप और द्वित्वरूप यह उभयरूप संख्या संख्यावान पदार्थसे भिन्न ही नहीं होती; क्योंकि उसके उभयरूप संख्यावान पदार्थसे भिन्न होनेसे, उस पदार्थके असंख्येयअगणनीय--हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है। द्रव्यके साथ संख्याका समवायसंबंध होनेसे द्रव्य संख्येयगणनीय--वन जाता है, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि कथंचित् तादात्म्यसबंधको छोड़कर अन्य समवायका होना असंभव है। इस प्रकार अपेक्षणीय स्वरूप और पररूपमें भेद होनेसे पदार्थके अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्ममें भेदकी सिद्धि हो जातो है। परस्पर भिन्न अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्म इन दो धर्मोकी सत्ताका एक पदार्थमें ज्ञान हो जानेसे इन दोनों धर्मोंमें कौनसा विरोध हो सकता है ?
शंका-अस्तित्व धर्मके और नास्तित्व धर्मके सद्भावका एक वस्तुमें होनेवाला ज्ञान मिथ्या होता है। समाधान-ठीक नहीं है । क्योंकि एक वस्तुमें रहनेवाले अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्मके सद्भावके ज्ञानको बाधित करनेवालेका अभाव है । उस ज्ञानको बाधित करनेवाला विरोध है, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि विरोधका सद्भाव होनेपर उस विरोधसे उक्त ज्ञानके बाधित होनेसे उक्त ज्ञानके मिथ्यापनकी सिद्धि, तथा उक्त ज्ञानके मिथ्यापनकी सिद्धि होनेपर अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्ममें विरोधके सद्भावकी सिद्धि होनेसे अन्योन्याश्रय नामका दोष उपस्थित हो जाता है। वध्य-घातकभावरूपसे, सहानवस्थानरूपसे और प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभावरूपसे विरोध तीन प्रकारका होता है। उन तीनोंमेंसे प्रथम विरोधमें सर्प और तकुल, अग्नि और जल आदि विषय आते हैं। वह वध्यघातकभावरूप विरोध एक कालमें विद्यमान होनेवाले पदार्थोंका संयोग होनेपर होता है; क्योंकि जिस प्रकार द्वित्व अनेकोंके अर्थात् दो पदार्थोंके आश्रयसे होता है, उसीप्रकार संयोग दो या अनेक पदार्थोंके आश्रयसे होता है-एक पदार्थके आश्रयसे नहीं। अग्निका नाश जल नहीं करता, क्योंकि जलका अग्निके साथ संयोग न होनेपर भी यदि जल अग्निका नाश करता है, ऐसा माना जाये तो सर्वत्र अग्निका अभाव हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतएव संयोग होनेपर उत्तर कालमें बलवानके द्वारा दूसरा वाधित किया जाता है। इसी प्रकार एक ही कालमें एक पदार्थ में अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्मका क्षणमात्रके लिये भी सद्भाव होता है, ऐसा प्रतिपक्षीके द्वारा नहीं माना जाता जिससे कि उन दोनों धर्मों में वध्यघातकभावरूप विरोधकी कल्पना की जा सके। यदि अस्तित्व और नास्तित्व धर्मकी स्थिति आपके द्वारा एक पदार्थमें मानी गयी तो अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्म इन दोनोंके समान बलवाले होनेसे, उनमें वध्य-घातकभावरूप विरोधका सद्भाव नहीं हो सकता। उन अस्तित्वरूप और नास्तित्वरूप दोनों धर्मोंमें सहानवस्थानरूप विरोध भी नहीं हो सकता। यह सहानवस्थानरूप विरोध-एक साथ एक पदार्थमें स्थित न होना रूप विरोध-भिन्न-भिन्न कालोंमें एक पदार्थमें या स्थानमें होनेवाले दोनोंमें, आम्रफलमें श्यामत्व और पीतत्वके समान होता है। अर्थात् जिस प्रकार आम्रफलमें भिन्न-भिन्न कालोंमें होनेवाले श्यामत्व और पीतत्वके आम्रफलमें समान कालमें रहने में विरोध होता है, उसी प्रकार एक पदार्थमें भिन्न-भिन्न कालोंमें रहनेवाले दोनोंमें सहानवस्थानरूप-एक साथ एक पदार्थमें स्थित न होना रूप-विरोध होता है । आम्रफलमें उत्पन्न होनेवाला पीतत्व पूर्वकालमें उत्पन्न हुए श्यामत्वको ( हरेपनको ) नष्ट करता है । श्यामत्व और पीतत्व जिस प्रकार पूर्वकाल और उत्तरकालमें उत्पन्न होनेवाले होते हैं, उसी प्रकार पदार्थमें रहनेवाले अस्तित्व और नास्तित्व पूर्वकाल और उत्तरकालमें उत्पन्न होनेवाले नहीं होते। यदि अस्तित्व और नास्तित्व पूर्वकाल और उत्तरकालमें उत्पन्न होनेवाले हों तो अस्तित्वके कालमें नास्तित्वका अभाव होनेसे जीवका केवल अस्तित्व सभीकी प्राप्ति कर लेगा-सभी पदार्थ जीवरूप बन जायेंगे। जीवके नास्तित्वपररूपसे होनेवाले नास्तित्व के काल में यदि जीवके स्वरूपसे अस्तित्वका अभाव हो गया तो बन्ध-मोक्षादि व्यवहारके विषयमें विरोध उपस्थित हो जायगा । जिसका सर्वथा अभाव होता है, उसके पुनः आत्मलाभकाउत्पत्तिका अभाव होनेसे और जिसका सर्वथा सद्भाव होता है उसका पुनः अभावको प्राप्त होना घटित न होनेसे, इन अस्तित्व और नास्तित्व धर्मोकी एक पदार्थमें एक साथ होनेवाली स्थितिका अभाव होना ठीक नहीं है। इसी प्रकार अस्तित्व और नास्तित्वमें प्रतिबध्य-प्रतिबंधकभावरूप विरोधका भी संभव नहीं है।