SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्र जेनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक २४ : प्रतिपादन करनेवाले वाक्यका प्रयोग देखा जाता है, 'कपाल उत्पन्न होगा' इस प्रकारके वाक्यका प्रयोग नहीं । और जिस प्रकार घटका नाश होनेपर जो घटका अभाव होता है, वह अभाव घटके नाशके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले कपालके स्वरूपका होनेपर भी, 'घट नष्ट हुआ' इस प्रकारके वाक्यका ही प्रयोग देखा जाता है, इसी प्रकार प्रकृत विषयमें भी 'पट नहीं है' इस वाक्यका प्रयोग करना ही उचित है, 'घट नहीं है इस वाक्यका प्रयोग करना उचित नहीं समाधान इसका परिहार निम्न प्रकार है घटके भावाभावारमकत्व - विधिनिषेधात्मकत्व अस्तित्वनास्तित्यधर्मयुक्तत्य की सिद्धि हो जानेपर हमारा विवाद ही समाप्त हो गया। क्योंकि हमारा अभीष्ट जो पटका भावाभावात्मकत्व है, उसकी सिद्धि हो गयी है। शब्दका - वाक्य – का प्रयोग तो पूर्व पूर्व प्रयोगके अनुसार ही होगा । शब्दका प्रयोग पदार्थ की सत्ताके अधीन नहीं होता । स्पष्टीकरणः – 'देवदत्त पकाता है' इस वाक्य में प्रश्न होता है कि क्या देवदत्तका अर्थ देववत्तका शरीर है या देवदत्तकी आत्मा है या देवदत्तके शरीरसे युक्त देवदत्तकी आत्मा है ? यदि देववत्तका अर्थ देवदत्तका शरीर हो तो 'देवदत्तका शरीर पकाता है इस प्रकारके वाक्यका प्रयोग करनेकी आपत्ति उपस्थित हो जाती है। यदि देवदत्तका अर्थ देवदत्तकी आत्मा हो तो 'देवदत्तकी आत्मा पकाती है' इस प्रकारके वाक्यका प्रयोग करनेकी आपत्ति उपस्थित हो जाती है। 'देवदत्त के शरीरसे युक्त देवदत्तकी आत्मा पकाती है' इस प्रकारके वाक्यके प्रयोगका अभाव होनेसे तीसरे पक्ष में भी उपपत्ति घटित नहीं होती। इस प्रकार प्रतिपादित प्रयोगके अभाव में पूर्व पूर्व प्रयोगका अभाव ही पारण है और इस प्रकार पूर्व पूर्व प्रयोगके अनुसार वामयके प्रयोगको प्रवृत्ति होनेसे शब्दप्रयोगके आधारपर प्रश्न करना ठीक नहीं है । २२८ - दूसरी बात : - घट आदिमें रहनेवाला पटादिरूप पर पदार्थके स्वरूपका जो अभाव होता है वह घटसे भिन्न होता है या अभिन्न ? घटमें जो घटभिन्न पदार्थके स्वरूपका अभाव होता है, यदि वह घटसे भिन्न हो तो उस अभावके भी घटसे भिन्न होनेसे, उस घटभिन्न पदार्थके स्वरूपके अभाव के अभावकी उस घटमें कल्पना करनी चाहिये। क्योंकि घटभिन्न पदार्थ के स्वरूप के अभाव के अभावकी घटमें कल्पना न की जाये तो पटभिन्न पदार्थ स्वरूपके अभावका घटसे भिन्नत्व घटित होनेसे घटके कथंचित् असद्रूपत्वकी - नास्तित्वकी - सिद्धि नहीं होती, और घट घटभिन्न पदार्थके स्वरूपके अभाव के अभावको कल्पना की जानेपर अनवस्था नामक दोष आता है। क्योंकि पटभिन्न पदार्थके स्वरूपके अभावका अभाव भी घटसे भिन्न होता है और घट जादिमें घटभिन्न पटरूप पदार्थके आतान वितानरूप स्वरूपके बभावके अभावकी घटमें कल्पना की जानेपर, घटभिन्न सभी पदार्थोंके स्वरूपोंके घटरूप हो जानेकी — घटके स्वरूप वन जानेकी -आपत्ति उपस्थित हो जाती है। क्योंकि दो अभावरूप दो निपेधोंसे प्रकृतको विधिको सिद्धि हो जाती है। ( 'द्वौ नक्षी प्रकृतार्थं गमयतः ' ऐसा नियम है । ) घटमें रहनेवाला घटभिन्न पटके स्वरूपका अभाव घटसे भिन्न न हो तो घटसे भिन्न न होनेवाले अस्तित्व धर्मसे जिस प्रकार घटादिमें अस्तित्व धर्मका सद्भाव होता है, उसी प्रकार घटसे भिन्न न होनेवाले नास्तित्वधर्मसे घटादिमें सिद्ध हुए नास्तित्वधर्मके सद्भावको भी स्वीकार करना चाहिये । - - - शंका-स्वरूप पदार्थका अस्तित्व ही पदार्थका पररूपसे नास्तित्व होता है और पररूपसे पदार्थका नास्तित्व ही पदार्थका स्वरूपसे अस्तित्व होता है, इसलिये अस्तित्व और नास्तित्व इन धर्मो में एक वस्तुमें भेद न होनेसे—दोनों धर्मोकी एकरूपता होनेसे - पदार्थको अस्तित्वनास्तित्वधर्मयुक्तता कैसे हो सकती है ? समाधान -- ऐसा कहना हो तो हम कहते हैं कि भावके अस्तित्व के द्वारा अपेक्षणीय निमित्त और अभावके —— नास्तित्व — द्वारा अपेक्षणीय निमित्तमें भेद होनेसे पदार्थ की अस्तित्वनास्तित्वधर्मयुक्तता हो जाती है । स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भावरूप, निमित्तकी अपेक्षासे पदार्थ ज्ञातामें अपने अस्तित्व धर्मका ज्ञान उत्पन्न कराता है, तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावरूप निमित्तकी अपेक्षासे ज्ञाता में अपने नास्तित्व धर्मका ज्ञान उत्पन्न कराता है । इस तरह एक पदार्थमें जैसे एकत्व, द्वित्व आदि संख्याओं में जिस प्रकार भेद होता है, उसी प्रकार एक पदार्थ में अस्तित्व धर्म और नास्तित्व धर्ममें होता है । एक द्रव्यमें अन्य द्रव्यकी अपेक्षासे प्रकट होनेवाली द्वित्वादि संख्या, जिसके अपने एक द्रव्यकी ही अपेक्षा होती है, ऐसी एकत्व संख्यासे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy