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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक २३
तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेताभ्यमभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं स सकलादेश: प्रमाणवाक्यापरपर्यायः, नयविषयी
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जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य एक रूप नहीं हैं, क्योंकि उनके असाधारण धर्म - गुण - परस्पर व्यावर्तक हैं । इससे स्पष्ट है कि जीवरूप गुणी और पुद्गलरूप गुणीके परस्पर भिन्न होनेसे उनके गुणोंकी परस्पर भिन्नता सिद्ध होती है । अत: प्रत्येक गुणके गुणिदेशके भिन्न होनेसे, एक पदार्थाश्रित अनंत गुणोंमें गुणिदेशकी दृष्टिसे अभेदकी सिद्धि नहीं होती । ( ७ ) दो विभिन्न पदार्थों में होनेवाले संयोगको संसर्ग कहते हैं । गुण और गुणी में तथा परिणाम और परिणामी में, यद्यपि द्रव्यार्थिक या निश्चय नयकी दृष्टिसे अभेद होता है, फिर भी पर्यायार्थिक या व्यवहार नयकी दृष्टिसे भेद ही होता है । व्यवहार नयकी दृष्टिसे उनमें भेद होनेसे, परिणाम और परिणामी तथा गुण और गुणीका जो संबंध होता है, वह संयोगरूप - संसर्गरूप होता है । परिणाम और परिणामी तथा गुण और गुणी दोनों संसर्गी हैं । गुणीके जितने भी गुण होते हैं वे संसर्गी हैं। गुणरूप संसर्गीके भेदसे गुण और गुणीके सभी संसर्ग भिन्न होते हैं । यदि गुणोंमें भेद न होता तो संसर्गों में भी भेद न होता । प्रति समय पदार्थ की पर्यायरूपसे परिणति होती है । उस पर्यायके साथ गुणका संसर्ग होता है । अतः द्रव्यकी प्रत्येक पर्यायरूप संसर्गी और गुणरूप संसर्गी स्वभिन्न संसगियुगलसे भिन्न होता है । अतः संसर्गिभेदसे संसर्गभेदकी सिद्धि हो जाती है । संसर्गभेदके कारण गुणोंमें अभेदकी सिद्धि नहीं हो सकती । दण्डग्रहण कालमें होनेवाली देवदत्तकी पर्याय तथा दण्ड- इन दोनोंमें जो संसर्ग होता है, वह छत्रग्रहण कालमें होनेवाली देवदत्तकी पर्याय और छत्र—इनमें होनेवाले संसर्गसे भिन्न होने के कारण, जिस प्रकार दण्ड और छत्र में अभेद सिद्ध नहीं होता, उसी प्रकार संसर्ग भेदके कारण पदार्थके अनेक गुणोंमें भेद नहीं होता । (८) वाच्यभूत अर्थके अनेक और भिन्न होनेसे, उनके वाचक शब्द अनेक और भिन्न होते हैं । एक पदार्थगत अनेक वाच्यभूत धर्मोके वाचक शब्द अनेक और भिन्न-भिन्न होते हैं । धर्मोके वाचक शब्द के भिन्न-भिन्न होनेसे - एक शब्द के द्वारा वाच्य न होनेसे - शब्दकी दृष्टिसे भी, एक पदार्थाश्रित धर्मों गुणों में अभेदको सिद्धि नहीं होती। यदि एक पदार्थ के आश्रित अनन्त धर्मोका वाचक एक ही शब्द होता है-- ऐसा स्वीकार किया गया, तो सभी पदार्थोंका वाचक एक ही शब्दके होनेकी आपत्ति उपस्थित हो जानेसे, अन्य शब्दोंकी विफलता होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है । इस प्रकार व्यवहार नय या पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अस्तित्व आदि धर्मोका एक वस्तुमें अभेद रूपसे आश्रित रहना असंभव होनेके कारण, काल आदि की दृष्टिसे भिन्न स्वरूप होनेवाले धर्मो में अभेदका उपचार किया जाता है— अर्थात् 'इनमें भेद नहीं होता', ऐस उपचारसे कहा जाता है ।
इससे स्पष्ट है कि द्रव्यार्थिक नय या निश्चय नयकी दृष्टिसे पदार्थाश्रित अनंत धर्मों में, तथा पदार्थ और उसके अनंत धर्मों में अभेद होता है, तथा पर्यायार्थिक नय या व्यवहार नयकी दृष्टिसे उनमें भेद होता है । जब पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अनन्त गुणोंमें, तथा गुण और गुणीमें भेदकी प्रधानता होती है, तब अभेदका उपचार किया जाता है, तथा जब द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे अनंत गुणोंमें तथा गुण और गुणीमें अभेदकी प्रधानता होती है, तब भेदका उपचार किया जाता है ) । '
द्रव्यार्थिक नयकी गौणता और पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता होनेपर काल आदिसे परस्पर भिन्न होनेवाले अस्तित्व आदि गुणोंकी एक पदार्थ में, वस्तुतः इस प्रकार अन्योन्य-भेद रूपसे स्थितिकी संभाव्यता न होनेपर, 'अस्तित्व आदि गुणोंकी एक पदार्थ में अभेदसे - अन्योन्य-भेद रूपसे — स्थिति होती है - ऐसा अभेदका उपचार किया जाता हैं । अतएव अभेदवृत्ति और अभेदोपचार — इन दोनोंसे, प्रमाणद्वारा प्रतिपन्न अनन्त धर्मों से युक्त वस्तुका युगपत् प्रतिपादन करनेवाला वाक्य सकलादेश अथवा प्रमाणवाक्य है । तथा, नयके
१. प्रोफेसर एम० जी० कोठारीके सौजन्यसे ।