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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी २२१ कृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद् वा क्रमेण यदभिधायकं वाक्यं स विकलादेशो नयवाक्यापरपर्यायः । इति स्थितम् । ततः साधूक्तम् आदेशभेदोदितसप्तभङ्गम् ।। इति काव्यार्थः ।। २३ ॥ द्वारा विषयीकृत वस्तुधर्मका पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे उस वस्तुधर्मकी, उस वस्तुके अन्य धर्मोसे भिन्न रूपसे वस्तु में स्थितिकी प्रधानता होनेसे, तथा द्रव्याथिक नयकी दृष्टि से वस्तुधर्मके, उस वस्तुके अन्य धर्मोंसे अभिन्न रूपसे स्थिति होनेके कारण, उस वस्तुधर्मका उस वस्तुके अन्य धमोंसे भेदका उपचार होनेसे, क्रमसे प्रतिपादन करनेवाला वाक्य विकलादेश अथवा नयवाक्य है। यह सिद्ध हो गया । अतएव सकलादेश और विकलादेशके भेदसे जिसके सात भंग प्रतिपादित किये गये हैं, वह ठीक ही है । यह श्लोकका अर्थ है ॥२३॥ भावार्थ-इस श्लोकमें जैन दर्शनके सात भंगोंका प्ररूपण किया गया है। 'सप्तभंगी' अनेकान्तवादका समर्थन करनेवाली युक्तिविद्या है। जैन सिद्धांतके अनुसार प्रत्येक पदार्थमें अनन्त धर्म विद्यमान हैं। इन अनन्त धर्मोका कथन एक समयमें किसी एक शब्दसे नहीं किया जा सकता। इसलिये जैन विद्वानोंने नयवाक्यका निर्देश किया है। इसी प्रमाणवाक्य और नयवाक्यको क्रमसे सकलादेश और विकलादेश कहते हैं । पदार्थके धर्मोंका काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्दको अपेक्षा अभेद रूपसे एक साथ कथन करनेवाले वाक्यको सकलादेश, अथवा प्रमाणवाक्य कहते हैं। तथा काल, आत्मरूप आदिकी भेद विवक्षासे पदार्थोके धर्मोको क्रमसे कहनेवाले वाक्यको विकलादेश, अथवा नयवाक्य कहते हैं। सकलादेश और विकलादेश प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगीके भेदसे सात-सात वाक्योंमें विभक्त हैं। (१) स्यादस्ति जीवः-किसी अपेक्षासे जीव अस्ति रूप ही है। इस भंगमें द्रव्याथिक नयकी प्रधानता, और पर्यायाथिक नयकी गौणता है। इसलिये जब हम कहते हैं कि 'स्यादस्त्येव जीवः', तो इसका अर्थ होता है कि किसी अपेक्षासे जीवके अस्तित्व धर्मकी प्रधानता, और नास्तित्व धर्मकी गौणता है। दूसरे शब्दोंमें हम कह सकते हैं कि जीव अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षा विद्यमान है, और दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा नहीं। यदि जीव अपने द्रव्य आदिकी अपेक्षा अस्ति रूप, और दूसरे द्रव्य आदिको अपेक्षा नास्ति रूप न हो, तो जीवका स्वरूप नहीं बन सकता। (२) स्यान्नास्ति जीवः-किसी अपेक्षासे जीव नास्ति रूप ही है। इस भंगमें पर्यायार्थिक नयकी मुख्यता, और द्रव्यार्थिक नयकी गौणता है। जीव परसत्ताके अभावको अपेक्षाको मुख्य करके नास्ति रूप है, तथा स्वसत्ताके भावकी अपेक्षाको गौण करके अस्ति रूप है। यदि पदार्थों में परसत्ताका अभाव न माना जाय, तो समस्त पदार्थ एक रूप हो जाय । यह परसत्ताका अभाव अस्तित्व रूपकी तरह स्वसत्ताके भावकी अपेक्षा रखता है। इसलिये जिस प्रकार स्वसत्ताका भाव अस्तित्व रूपसे है, और नास्तित्व रूपसे नहीं, उसी तरह परसत्ताका अभाव भी स्वसत्ताके भावकी अपेक्षा रखता है। कोई भी वस्तु सर्वथा भाव अथवा अभाव रूप नहीं हो सकती, इंसलिये भाव और अभावको सापेक्ष ही मानना चाहिये । (३) स्यादस्ति च नास्ति च जीवः-जीव कथंचित् अस्ति और नास्ति स्वरूप है। इस नयमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों नयोंकी प्रधानता है। जिस समय वक्ताके अस्ति और नास्ति दोनों धर्मोके कथन करनेकी विवक्षा होती है, उस समय इस भंगका व्यवहार होता है। यह नय भी कथंचित् रूप है। यदि वस्तुके स्वरूपको सर्वथा वक्तव्य मानकर किसी अपेक्षासे भी अवक्तव्य न मानें, तो एकान्त पक्षमें अनेक दूषण आते हैं। (४) स्यादवक्तव्य जीव:-जीव कथंचित् अवक्तव्य ही है। इस भंगमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों नयोंकी अप्रधानता है। ऊपर कहा चुका है कि जिस समय वस्तुका स्वरूप एक नयकी अपेक्षा कहा जाता है, उस समय दूसरा नय सर्वथा निरपेक्ष नहीं रहता। किन्तु जिस नयकी जहाँ विवक्षा होती है, वह नय वहाँ प्रधान होता है, और जिस नयको जहाँ विवक्षा नहीं होती, वह नय वहाँ गौण होता हैं। प्रथम भंगमें जीवके
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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