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अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्यावादमञ्जरी
२१५ स्तित्वस्य स एव शेपविशेपाणामिति सम्बन्धेनाभेदवृत्तिः। ५ य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वकरणं स एव शेपैरपि गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्तिः। ६ य एव गुणिनः सम्बन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वत्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनामेदवृत्तिः। ७ य एव चैकवस्त्वात्मनास्तित्वस्य संसर्गः स एव शेपधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः। अविष्वग्भावेऽभेदः प्रधानम् भेदो गौणः, संसर्गे तु भेदः प्रधानम् अभेदो गौण इति विशेपः। ८ य एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयगुणभावे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्याद् उपपद्यते ॥
तादात्म्य सम्बन्ध अस्तित्वमें रहता है, उसी तरह उक्त सम्बन्ध अन्य धर्मोंमें भी रहता है, इसलिये सम्बन्धकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं (५) उपकार-जो उपकार अस्तित्वके द्वारा अपने स्वरूपमें अनुराग उत्पन्न करता है, वही उपकार अन्य धर्मोके द्वारा भी अनुराग पैदा करता है, अतएव उपकारकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। (६) गुणिदेश (द्रव्यका आधार ) जो क्षेत्र द्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाले अस्तित्वका है, वही क्षेत्र अन्य धर्मोंका है, अतएव अस्तित्व आदि धर्मोंमें अभेद भाव है। (७) संसगे-- एक वस्तुको अपेक्षासे जो संसर्ग अस्तित्वका है, वही संसर्ग अन्य धर्मोका भी है, इसलिए संसर्गकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्मोंमें अभेद है। सम्बन्धमें अभेदको प्रधानता और भेदकी गौणता, तथा संसर्गमें भेदकी प्रधानता और अभेदकी गौणता होती है। (८) शब्द-जिस 'अस्ति' शब्दसे अस्तित्व धर्मका ज्ञान होता है, उसी 'अस्ति' शब्दसे अन्य धर्म भी जाने जाते हैं, अतएव शब्दकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म परस्पर अभिन्न हैं। जिस समय पर्यायाथिक नयको गौणता और द्रव्याथिक नयकी प्रधानता होती हैं, उस समय पदार्थोके धर्मों में अभेद भावका ज्ञान होनेसे अभेदवृत्ति होती है।
[स्पष्टीकरणः (१) काल-'जीव आदि पदार्थ 'कथंचित् अस्तिरूप हो हैं'-इस उदाहरणमें जीव आदि रूप पदार्थमें जितने काल तक अस्तित्व गुण विद्यमान रहता है, उतने काल तक और भी अनन्त धर्म पाये जाते हैं। इस प्रकार जीव आदि एक पदार्थमें अस्तित्व एवं अन्य धर्मोंकी स्थिति कालकी दृष्टि से अभेद रूप है । इसी तरह घटका उदाहरण लिया जा सकता है । जितने काल तक घटमें अस्तित्व धर्म रहता है, उतने काल तक घटके अन्य धर्म भी विद्यमान रहते हैं। जिस कालमें घटका अस्तित्व नष्ट हो जाता है उस कालमें घटके अन्य धर्मोका भी अभाव हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि पदार्थके अस्तित्व धर्मके साथ उसके अन्य धर्मोका अविनाभाव-तादात्म्य-अभेद-सिद्ध हो जाता है। जीव द्रव्यमें रहनेवाला अस्तित्व गुण अनादिनिधन है इसलिये उसका ज्ञान सामान्यरूप धर्म भी अनादि निधन होता है, क्योंकि जीवके अस्तित्वसे ज्ञानगुण कालकी दृष्टिसे अभिन्न है। अतएव पदार्थके अस्तित्व धर्मका जितना काल होता है, उतना ही काल उसके अन्य धर्मोंका उस पदार्थमें अस्तिरूप रहनेका होता है। इसलिये पदार्थके अस्तित्व धर्म और उसके शेष धर्मों में कालको दृष्टि से अभेद है। (२) आत्मरूप-जिस प्रकार अस्तित्व गुणका पदार्थका स्वभाव है, उसी प्रकार अन्य अनन्त गुण भी पदार्थके स्वभाव है। इस प्रकार एक पदार्थमें पदार्थके गुण होना रूप स्वभावसे पदार्थका अस्तित्व धर्म एवं शेष अनन्त धर्म भी रहते हैं। अतएव एक पदार्थमें अस्तित्व आदि सभी धर्मोकी स्वस्वरूप (आत्मस्वरूप) की दृष्टिसे अभेदवृत्ति रहतो है। जिस प्रकार अस्तित्व गुणका जीव पदार्थका गुण होना स्वस्वरूप है, उसी प्रकार अन्य ज्ञान आदि रूप अनन्त गुणोंका जीव पदार्थका गुण होना भी स्वस्वरूप है। अतः जीवरूप एक पदार्थमें अस्तित्व और अन्य शेष ज्ञान आदि रूप अनन्त धर्मको आत्मस्वरूप दृष्टि से अभेद वृत्ति होती है। जिस प्रकार घटका गुण होना अस्तित्वका स्वरूप है, उसी प्रकार उसके अन्य शेष अनन्त धर्मोंका भी घटका गुण होना स्वस्वरूप है। अतः घटरूप एक पदार्थमें अस्तित्व और अन्य शेष अनंत धर्मोकी आत्मस्वरूपको दृष्टिसे अभेद वृत्ति है। (३) अर्थ-जो पदार्थ अस्तित्व गुणका आधार होता है, वही अन्य अक्रमभावी पर्यायों-गुणोंका-आधार होता है। इस प्रकार एक द्रव्यका अस्तित्व धर्म और उसके अन्य अनन्त गुणों जव एक ही पदार्थ आधार