________________
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लो. २३
होता है, तब अर्थकी दृष्टिसे उन गुणोंमें अभेद होता है। जिस प्रकार अस्तित्व गुणका जीव पदार्थ आश्रय होता है, उसी प्रकार अन्य शेष अनन्त धर्मोंका भी जीवद्रव्य आश्रय होता है । अतः अस्तित्व धर्म और अन्य शेष ज्ञान आदिरूप अनन्त धर्मका एक जीव पदार्थ के आश्रित होनेसे अर्थ की दृष्टिसे उन धर्मो में अभेद हैं । (४) सम्बन्ध - जिस प्रकार अस्तित्व धर्मका पदार्थ के साथ कथंचित् तादात्म्यरूप सम्बन्ध होता है, वैसे ही कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध अन्य समस्त धर्मोंका उस पदार्थके साथ रहता है। इस प्रकार पदार्थ के अस्तित्व धर्मका और उसके अन्य शेष धर्मोंका उसी पदार्थके साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध अर्थात् अभेद होनेसे, उन सभी धर्मो में सम्बन्धकी दृष्टिसे अभेद होता है । इस प्रकार अस्तित्व धर्मका जीव पदार्थके साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध होनेसे अस्तित्व धर्म तथा अन्य शेष ज्ञान आदि रूप अनन्त धर्ममें सम्बन्धको दृष्टिसे अभेद होता है । (५) उपकार - पदार्थका अस्तित्व गुणके द्वारा स्वस्वरूपसे युक्त किया जाना पदार्थका अस्तित्व उसी गुणकृत उपकार होता है। इसी प्रकार उस पदार्थ के शेष अन्य गुणोंके द्वारा स्वस्वरूपसे युक्त किया जाना, पदार्थका शेष गुणकृत उपकार होता है । पदार्थ के अस्तित्व गुणकृत तथा उस पदार्थ के आश्रित अन्य शेष गुणों द्वारा किये जानेवाले उपकारके एक होनेसे अस्तित्व गुण तथा उसके अन्य शेष गुणोंमें उपकारकी दृष्टिसे अभेद है । आचार्य प्रवर श्रीविद्यानन्दने उपकार शब्दका अर्थ 'स्वानुरक्तत्वकरणं' किया है— अर्थात् अपनी विशेषताको पदार्थमें निर्माण करना । उदाहरणार्थ, नीलवर्ण पुद्गलका गुण है; वह गुण पुद्गलमें अपने वैशिष्ट्यका निर्माण करता है । पदार्थ में अस्तित्व गुण अपने वैशिष्ट्यको निर्माण करता है । यदि अस्तित्व गुणका वैशिष्ट्य पदार्थ में न हो तो पदार्थका अभाव हो जायेगा । इस वैशिष्टयको पदार्थ में निर्माण करना ही पदार्थका गुणकृत उपकार है । जिस प्रकार अस्तित्त्वगुण पुद्गल पदार्थ में अपने वैशिष्ट्यको निर्माण कर पदार्थका उपकार करता है—उसे स्वानुरक्त करता है, उसी प्रकार नीलत्व आदि रूप अन्य गुण भी पुद्गल पदार्थमें अपने वैशिष्ट्यको निर्माण कर उसी पदार्थका उपकार करता है— उसे स्वानुरक्त करता है । अतः अस्तित्व धर्म और अन्य शेष नीलत्व आदि धर्म, पुद्गल पदार्थ में अपने वैशिष्टयके निर्माणकर्ता होनेके कारण उपकारकी दृष्टिसे अभिन्न है । ( ६ ) गुणिदेश - जो अस्तित्व धर्मका गुणिदेश होता है वही अन्य धर्मोका भी होता है । इस प्रकार गुणिदेशको दृष्टिसे अस्तित्व धर्म तथा अन्य शेष धर्मोंमें अभेद है । गुणी अर्थात् गुणवान् पदार्थ के जितने प्रदेशों में अस्तित्त्व धर्म होता है, उतने ही प्रदेशोंमें अन्य शेष गुणोंका होना ही अस्तित्व गुण तथा अन्य शेष गुणोंमें गुणिदेशकी दृष्टिसे अभेद सिद्ध करता | पदार्थ के सभी प्रदेशों में अस्तित्व गुण होता है । इस अस्तित्व गुणके समान पदार्थके सभी प्रदेशोंमें उसके अन्य शेष गुण भी होते हैं । अस्तित्व गुण जीवके कुछ प्रदेशों में हो, और कुछमें न हो - ऐसा कभी नहीं होता । यह गुण जीवके सभी प्रदेशोंमें पाया जाता है । जिस प्रकार अस्तित्व गुण जीवके सभी प्रदेशोंमें होता है, उसी प्रकार जीवके शेष अन्य ज्ञान आदि अनंत गुण भी होते हैं । अतः जीवका अस्तित्त्व गुण और उसके शेष ज्ञान आदि गुणमें गुणिदेशकी दृष्टिसे अभेद है । (७) संसर्ग - एक पदार्थ के रूपसे अस्तित्व धर्मका पदार्थ के साथ जो संसर्ग होता है, वही एक वस्तुके स्वभावरूपसे उसी पदार्थ के अन्य शेष धर्मो का उसी पदार्थ के साथ संसर्ग होता है। इस प्रकार एक पदार्थ के साथ एक वस्तु के स्वभावके रूपसे अस्तित्व धर्मका संसर्ग होनेसे तथा उसी पदार्थ के अन्य शेष धर्मोका एक वस्तुके स्वभावरूपसे उसी पदार्थ के साथ संसर्ग होनेसे, उस पदार्थका अस्तित्व धर्म और उसी पदार्थ के अन्य शेष धर्मो में संसर्गकी दृष्टिसे अभेद होता है । संसर्ग दो भिन्न पदार्थों में होता है । लोकव्यवहारमें पर्यायार्थिकगुण और गुणी में द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे अग्निकी उष्णता है - यहाँ अग्नि और किया जाता है। इस व्यवहारसे उनके
की दृष्टि गुण गुणी में भेद समझकर व्यवहार किया जाता है। भेदका अभाव होता है— अर्थात् अभेद होता है, फिर भी 'यह उष्णता वस्तुतः अभेद होने पर भी उनमें भेद समझकर व्यवहार भेदका संस्कार जो दृढ़ हो गया होता है, उसका अभाव द्रव्यार्थिक नयकी सहायतासे किया जाता है । कथंचित् तादाम्य सम्बन्धमें अभेद मुख्य होता है और भेद गौण तथा संसर्ग में भेद मुख्य होता है और अभेद गौण । यही तादात्म्य संबंध तथा संसर्ग ( संयोग ) संबंध में भेद है । कथंचित् तादात्म्य कथंचित् भेदाभेद रूप होता
२१६