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________________ २१४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ नामपि धर्मधर्मिणामभेदाध्यारोपाद् वा समकालमभिधायकं वाक्यं सकलादेशः। तद्विपरीतस्तु विकलादेशो नयवाक्यमित्यर्थः। अयमाशयः-योगपद्यनाशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिमिरभेदप्राधान्यवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा प्रतिपादयति सकलादेशः, तस्य प्रमाणाधीनत्वात । विकलादेशस्त क्रमेण भेदोपचाराद् भेदप्राधान्याद्वा तदभिधत्तं, तस्य नयात्मकत्वात् ॥ ___कः पुनः क्रमः किं च योगपद्यम् । यदास्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्यानेकाशेषधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद् यौगपद्यम् ॥ के पुनः कालादयः। कालः आत्मरूपम् अर्थः सम्बन्धः उपकारः गुणिदेशः संसर्गः शब्दः । १ तत्र स्याद् जीवादिवस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति तेषां कालेनाभेदवृत्तिः । २ यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेव अन्यानन्तगुणानामपीति आत्मरूपेणाभेदवृत्तिः। ३ य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्तिः । ४ य एव चाविष्वग्भावः कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणः सम्वन्धोऽ अभिन्न रूपसे रहनेवाले सम्पूर्ण धर्म और मियोंमें अभेद भावकी प्रधानता रख कर, अथवा काल आदिसे भिन्न धर्म और धर्मीमें अभेदका उपचार मानकर सम्पूर्ण धर्म और धर्मियोंका एक साथ कथन किया जाता है, उस समय सकलादेश होता है । सकलादेशसे काल आदिकी अभेद दृष्टि अथवा अभेदोपचारकी अपेक्षा वस्तुके सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ ज्ञान होता है । जैसे अनेक गुणोंके समुदायको द्रव्य कहते हैं, इसलिये गुणोंको छोड़ कर द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है, अतएव द्रव्यका निरूपण गुणवाचक शब्दके बिना नहीं हो सकता। अतएव अस्तित्व आदि अनेक गुणोंके समुदाय रूप एक जीवका निरंश रूप समस्तपनेसे अभेदवृत्ति (द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा सम्पूर्ण धर्म अभिन्न हैं ) और अभेदोपचार ( पर्यायाथिक नयसे समस्त धर्मोके परस्पर भिन्न होनेपर भी उनमें एकताका आरोप है ) से एक गुणके द्वारा प्रतिपादन होता है। इसलिये एक गुणके द्वारा अभिन्न स्वरूपके प्रतिपादन करनेको सकलादेश कहते हैं। यह सकलादेश प्रमाणके आधीन होता है । जिस समय काल आदिसे अस्तित्व आदि धर्मोंका भेदप्राधान्य अथवा भेदोपचार होता है, उस समय एक शब्दसे अनेक धर्मोंका प्रतिपादन नहीं किया जा सकता, इसलिये पदार्थोंका निरूपण कमसे होता है। इसे विकलादेश अयवा नय वाक्य कहते हैं। विकलादेशमें भेदवृत्ति अथवा भेदोपचारकी प्रधानता रहती है। विकलादेश नयके आधीन होता है। जिस समय अस्तित्व आदि धर्मोंका काल आदिसे भेद सिद्ध करना होता है, उस समय एक शब्दसे अनेक धर्मोका ज्ञान नहीं हो सकता, अतएव सम्पूर्ण धर्मोंका एक-एक करके ही कथन किया जा सकता है, इसे क्रम कहते हैं। इसी क्रमसे विकलादेशसे ज्ञान होता है। तथा, जिस समय वस्तुके अनेक धर्मोका काल आदिसे अभेद सिद्ध करना होता है, उस समय एक शब्दसे यद्यपि वस्तुके एक धर्मका ज्ञान होता है, परन्तु एक शब्दसे ज्ञात इस एक धर्मके द्वारा ही पदार्थोके अनेक धर्मोका ज्ञान होता है। इसे वस्तुओंका एक साथ ( युगपत् ) ज्ञान होना कहते हैं, यह ज्ञान सकलादेशसे होता है। (१) काल-'जीव आदि पदार्थ कथंचित अस्ति रूप ही हैं। यह कहनेपर जिस समय जीवमें अस्तित्व आदि धर्म मौजूद रहते हैं, उस समय जीवमें और भी अनन्त धर्म पाये जाते है, अतएव कालकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म एक है। (२) आत्मरूप ( स्वभाव )-जिस प्रकार जीवका अस्तित्व स्वभाव है, उसी प्रकार और धर्म भी जीवके स्वभाव है। इसलिये स्वभावकी अपेक्षा अस्तित्व आदि अभिन्न हैं । (३) अर्थ ( आधार)-जिस प्रकार द्रव्य अस्तित्वका आधार है, वैसे ही और धर्म भी द्रव्यके आधार है। अतएव आधारकी अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न है। (४) सम्बन्ध-जिस प्रकार कथंचित्
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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