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अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी
२१३ सङ्गाद् असङ्गतैव सप्तभङ्गीति, विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव संभवात् । यथा हि सदसत्त्वाभ्याम् , एवं सामान्य विशेषाभ्यामपि सप्तभङ्गयेव स्यात् । तथाहि । स्यात्सामान्यम् , स्याद् विशेषः, स्यादुभयम् , स्यादवक्तव्यम् , स्यात्सामान्यावक्तव्यम् , स्याद् विशेषावक्तव्यम् , स्यात्सामान्यविशेषावक्तव्यमिति । न चात्र विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यम् , सामान्यस्य विधिरूपत्वाद् विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथवा प्रतिपक्षशब्दत्वाद् यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता। यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता । एवं सर्वत्र योज्यम् । अतः सुष्ठूक्तं अनन्ता अपि सप्तभङ्गय एव संभवेयुरिति, प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव संभवात् , तेषामपि सप्तत्वं सप्तविधतजिज्ञासानियमात् , तस्या अपि सप्तविधत्वं सप्तधैव तत्संदेहसमुत्पादात् , तस्यापि सप्तविधत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्त विधत्वस्यैवोपपत्तेरिति ।।
इयं च सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गसकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च । तत्र सकलादेशः प्रमाणवाक्यम् । तल्लक्षणं चेदम्-प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्याद् अभेदोपचाराद् वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलदेशः । अस्यार्थः--कालादिभिरष्टाभिः कृत्वा यदभेदवृत्तेधर्मधर्मिणोरपृथग्भावस्य प्राधान्यं तस्मात् कालादिभिभिन्नात्म
किये जानेसे अनंत भंगोंके समूहका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा तो फिर वस्तुमें केवल सात ही भंगोंकी कल्पना आप क्यों करते हैं ? समाधान–प्रत्येक वस्तुमें अनंत धर्म होनेके कारण वस्तुमें अनेक भंग होते हैं, परंतु ये अनंत भंग विधि और निषेधकी अपेक्षासे सात ही हो सकते हैं । अतएव जिस प्रकार सत्त्व धर्म ( अस्तित्त्व धर्म ) और असत्त्व धर्म (नास्तित्त्व धर्म ) से एक ही सप्तभंगी ( सात भंगोंका एक समूह ) होती है, उसी तरह सामान्य धर्म और विशेष धर्मकी अपेक्षासे भी एक ही सप्तभंगी बनती है। तथाहि सामान्य और विशेषसे स्यात् सामान्य, स्यात् विशेष, स्यात् उभय, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् सामान्यअवक्तव्य, स्यात् विशेषअवक्तव्य,
और स्यात् सामान्य-विशेष अवक्तव्य ये सात भंग होते हैं। शंका-आपने ऊपर विधि और निषेध धर्मोके विचार पूर्वक 'स्यात्' शब्दसे युक्त सात प्रकारको वचनरचनाको सप्तभंगी कहा था। यह विधि और निषेध धर्मोकी कल्पना सामान्य-विशेषको सप्तभंगीमें कैसे बन सकती है ? समाधान-सामान्य-विशेषकी सप्तभंगी में भी विधि और निषेध धर्मोकी कल्पना की जा सकती है। क्योंकि सामान्य विधि रूप है, और विशेष व्यवच्छेदक होनेसे निषेध रूप है। अथवा, सामान्य और विशेष दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव जब सामान्य की प्रधानता होती है, उस समय सामान्यके विधि रूप होनेसे विशेष निषेध रूप कहा जाता है, और जब विशेषकी प्रधानता होती है, उस समय विशेषके विधिरूप होनेसे सामान्य निषेध रूप कहा जाता है। इस प्रकार सर्वत्र योजना करनी चाहिये । अतः ठीक हो कहा है कि अनंत भंगोंमें भी सात भंगोंकी ही कल्पना सिद्ध है। प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षा प्रतिपाद्य संबंधी सात प्रकारके ही प्रश्न किये जा सकते हैं, अतएव सात हो भंग होते हैं। प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षा सात प्रकारकी ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, इसलिये सात प्रकार के ही प्रश्न होते हैं । संदेहके सात ही प्रकार हो सकते हैं, इसलिये सात ही प्रकारको जिज्ञासा हो सकती है। तथा प्रत्येक वस्तुके सात ही धर्मोका होना संभव है, अतएव संदेह भी सात प्रकारके ही होते हैं ।
यह सप्तभंगी प्रत्येक भंगमें सकल और विकल आदेश रूप होती है। प्रमाणवाक्यको सकल आदेश कहते हैं । प्रमाणसे जानी हुई अनन्त धर्म स्वभाववाली वस्तुको काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्दको अपेक्षासे अभेद वृत्तिकी अथवा अभेदोपचारकी प्रधानतासे सम्पूर्ण वर्मोको एक साथ प्रतिपादन करनेवाले वाक्यको सकलादेश कहते हैं । प्रत्येक वस्तुमें अनंत धर्म मौजूद हैं। इन धर्मोका एक साथ और क्रम-क्रमसे शब्दों द्वारा प्रतिपादन किया जाता है। जिस समय वस्तुमें काल आदिकी अपेक्षा