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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् ।
आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥२३॥ समस्यमानं संक्षेपेणोच्यमानं वस्तु अपर्ययम् अविवक्षितपर्यायम् । वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु धर्माधर्माकाशपुद्गलकालजीवलक्षणं द्रव्यपटकम् । अयमभिप्रायः। यदैकमेव वस्तु आत्मघटादिकं चेतनाचेतनं सतामपि पर्यायाणामविवक्षया द्रव्यरूपमेव वस्तु वक्तुमिष्यते । तदा संक्षेपेणाभ्यन्तरीकृतसकलपर्यायनिकायत्वलक्षणेनाभिधीयमानत्वात् अपर्ययमित्युपदिश्यते । केवलद्रव्यरूपमेव इत्यर्थः। यथात्मायं घटोऽयमित्यादि, पर्यायाणां द्रव्यानतिरेकात् । अतएव द्रव्यास्तिकनयाः शुद्धसंग्रहादयो द्रव्यमात्रमेवेच्छन्ति पर्यायाणां तदविष्वग्भूतत्वात् । पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् । अद्रव्यमित्यादि । चः पुनरर्थे । स च पूर्वस्माद् विशेपद्योतने भिन्नक्रमश्च । विविच्यमानं चेति विवेकेन पृथग्रुपतयोच्यमानं पुनरेतद् वस्तु अद्रव्यमेव । अविवक्षितान्वयिद्रव्यं केवलपर्यायरूपमित्यर्थः॥
यदा ह्यात्मा ज्ञानदर्शनादीन् पर्यायानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते, तदा पर्याया एव
श्लोकार्थ-सहभावी और क्रमभावी पर्यायोंसे युक्त होनेपर भी संक्षेपमें कथन किये जाने पर जिसकी पर्याय गौण होती हैं, और विस्तारसे कथन किये जानेपर जिसकी पर्यायोंकी मुख्यता होती है, तथा सकलादेश ( प्रमाण ) और विकलादेश ( नय ) के भेदसे जिसके सात अंगोंका प्ररूपण किया गया है, ऐसी पंडितों द्वारा समझने योग्य वस्तुका, हे भगवन् ! आपने ही प्रतिपादन किया है।
व्याख्यार्थ-जव वस्तुका कथन संक्षेप में किया जाता है, तब उसकी पर्याय विवक्षित नहीं होतीवे गौण होती हैं । जिसमें गुण और पर्याये रहती है, वह वस्तु धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल और जीव इन छह द्रव्यों [देखिये परिशिष्ट (क)] में विभक्त की जाती है । ( कोई आचार्य कालको पृथक् द्रव्य नहीं मानते । उनके मतमें पांच ही द्रव्य हैं ) अभिप्राय यह है-चेतनात्मक आत्मरूप और अचेतनात्मक घट आदि रूप एक ही वस्तुको पर्यायोंके विद्यमान होने पर भी, उन पर्यायोंके कथन करनेकी इच्छा न होनेसेउन्हें गौण कर देनेसे-द्रव्यमात्र रूप वस्तुका कथन करना ही इष्ट होता है। अतएव संक्षेपसे प्रतिपादित समस्त पर्यायसमूहके अन्तर्भाव होनेसे 'अपर्ययय' शब्दका प्रयोग किया गया है । 'अपर्यय'का अर्थ है केवल द्रव्यरूप । उदाहरणके लिये, 'यह आत्मा है', 'यह घट है'-कहने पर, आत्मा और घटकी पर्यायें विद्यमान होनेपर भी, उनके आत्मा और घटसे भिन्न न होनेके कारण, उनका निदेश नहीं किया जाता; क्योंकि वे विवक्षित नहीं हैं । अतएव द्रव्यास्तिक नयरूप शुद्ध संग्रह आदि नयोंको अपने विपयरूपसे द्रव्यमात्र ही इप्ट होता है, क्योंकि पर्याय द्रव्यसे भिन्न नहीं होतीं। 'पर्यय', 'पर्यव' 'पर्याय' शब्द पर्यायवाची है। जव पर्यायोंका द्रव्यसे भिन्नरूपसे कथन किया जाता है तव अन्वयि द्रव्यकी विवक्षा न होनेसे वस्तु केवल पर्यायरूप होती है।
जिस समय आत्माकी ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायोंकी मुख्यतासे आत्माका विचार किया जाता है,
केषांचिदाचार्याणां मते पंचास्तिकाया एव । कालो द्रव्यं पृथग् नास्ति । जीवादिवस्त्वपि कदाचित् कालशब्देन उच्यते । तथा चागमः । “किमयं भंते, कालोत्ति पवुच्चइ, गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेवत्ति"। अन्ये तु आचार्याः संगिरन्ते । अस्ति धर्मास्तिकायादिद्रव्यपंचकव्यतिरिक्तम् अर्द्धतृतीयद्वीपसमद्रान्तर्वति षष्ठं कालद्रव्यं, यन्निवन्धा एते ह्यः श्व इत्यादयः प्रत्ययाः शब्दाश्च प्रादुर्भवन्ति । आगमश्च । “कइ णं भंते दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ दन्वा पण्णत्ता । तं जहा-धम्मत्थिकाये अधम्मत्थिकाए, आगासत्यिकाए, पुग्गलत्यिकाए जीवत्थिकाए अद्धासमये य" । हरिभद्रकृतधर्मसंग्रहिण्यां मलयगिरिटीकायां गा. ३२