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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी २०५ प्रतिभासन्ते, न पुनरात्माख्यं किमपि द्रव्यम् । एवं घटोऽपि कुण्डलौष्ठपृथुबुध्नोदरपूर्वापरादिभागाद्यवयवापेक्षया विविच्यमानः पर्याया एव, न पुनर्घटाख्यं तदतिरिक्तं वस्तु । अतएव पर्यायास्तिकनयानुपातिनः पठन्ति "भागा एव हि भासन्ते संनिविष्टास्तथा तथा । तद्वान्नैव पुनः कश्चिन्निर्भागः संप्रतीयते" ।। इति । ततश्च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यनयार्पणया पर्यायनयानर्पणया च द्रव्यरूपता, पर्यायनयार्पणया द्रव्यनयानपणया च पर्यायरूपता, उभयनयार्पणया च तदभयरूपता। अत एवाह वाचकमुख्यः "अर्पितनर्पितासिद्धेः” इति । एवंविधं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु त्वमेवादीदृशस्त्वमेव दर्शितवान् नान्य इति काकावधारणावगतिः॥ नन्वन्याभिधानप्रत्यययोग्यं द्रव्यम्, अन्याभिधानप्रत्ययविषयाश्च पर्यायाः। तत्कथमेकमेव वस्तूभयात्मकम् ? इत्याशङ्कय विशेषणद्वारेण परिहरति आदेशभेदेत्यादि । आदेशभेदेन सकलादेशविकलादेशलक्षणेन आदेशद्वयेन उदिताः प्रतिपादिताः सप्तसंख्या भङ्गा वचनप्रकारा यस्मिन् वस्तुनि तत्तथा। ननु यदि भगवता त्रिभुवनबन्धुना निर्विशेषतया सर्वेभ्य एवंविधं वस्तुतत्त्वमुपदर्शितम्, तहिं किमर्थ तीथोन्तरीयाः तत्र विप्रतिपद्यन्ते ? इत्याह बुधरूपवेद्यम् इति । बुध्यन्ते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वं सारेतरविषयविभागविचारणया इति बुधाः। प्रकृष्टाः बुधाः बुधरूपाः नैसर्गिकाधिगमिकान्यतरसम्यग्दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनः प्राणिनः। तैरेव उस समय केवल ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायोंका ही ज्ञान होता है, आत्मा कोई भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी प्रकार जब हम घटके मोटेपन, गोलपन, पूर्वभाग, अपरभाग आदि अवयवोंको देखते हैं, उस समय हमें घट द्रव्यका अलग ज्ञान न होकर घटकी पर्यायोंका ही ज्ञान होता है। अतएव पर्यायास्तिक नयको माननेवाले कहते हैं "उस प्रकारसे पारस्परिक घनिष्ठ संयोगको प्राप्त अंश-अवयव-ही प्रतिभासित होते हैं। अंशवान् पदार्थ ही प्रतिभासित होता है, कोई निरंश द्रव्य दिखाई ही नहीं देता।" अतएव प्रत्येक वस्तुके द्रव्य, पर्याय और उभयरूप होनेपर भो द्रव्यनयकी मुख्यतासे और पर्यायनयको गौणतासे वस्तुका ज्ञान द्रव्यरूप, पर्यायनयकी मुख्यता और द्रव्यनयको गौणतासे वस्तुका ज्ञान पर्याय रूप, तथा द्रव्य और पर्याय दोनोंकी प्रधानतासे वस्तुका ज्ञान उभयरूप होता है। वाचकमुख्य उमास्वातिने कहा भी है-"द्रव्य और पर्यायकी मुख्यता और गौणतासे वस्तुको सिद्धि होती है।" वस्तुका यह द्रव्य और पर्यायरूप स्वरूप आपने ( जिन भगवान्ने ) ही प्ररूपण किया है, दूसरे किसीने नहीं। यहाँ अवधारणका ज्ञान काकुसे होता है। शंका-द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न-भिन्न अभिधान और भिन्न-भिन्न ज्ञानके विषय होते हैं अतएव एक वस्तुको द्रव्य और पर्याय दोनों रूप नहीं कह सकते। समाधान-इस शंकाका परिहार 'आदेशभेद' विशेषणसे किया गया है । हमलोग सकल और विकल आदेशके भेदसे द्रव्य और पर्यायरूप वस्तुको मानते है। इसी सकलादेश ( प्रमाण ) और विकलादेश (नय ) के ऊपर सप्तभंगी नय अवलम्बित है । शंकायदि तीनों लोकोंके बन्धु जिन भगवान्ने प्रत्येक वस्तुका सामान्य रूपसे सब लोगोंके लिये सप्तभंगो द्वारा विवेचन किया है, तो अन्य वादी लोग सप्तभंगीके सिद्धांतको क्यों नहीं मानते ? समाधान-सप्तभंगी नयके सूक्ष्म तत्त्वको निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध उत्कृष्ट विद्वान हो समझ सकते हैं। केवल अपने १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे ५-३२ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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