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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २२] स्याद्वादमञ्जरी २०३ अत्र चात्मशब्देनानन्तेष्वपि धर्मेष्वनुवृत्तिरूपमन्वयिद्रव्यं ध्वनितम्। ततश्च "उत्पाद - व्ययनौव्ययुक्तं सत्” इति व्यवस्थितम् । एवं तावदर्थेषु । शब्देष्वपि उदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताल्पप्राणमहाप्राणतादयः तत्तदर्थप्रत्यायनशक्त्यादयश्चावसेयाः । अस्य हेतोरसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वादिकण्टकोद्धारः स्वयमभ्यूः । इत्येवमुल्लेखशेखराणि ते तव प्रमाणान्यपि न्यायोपपन्नसाधनवाक्यान्यपि । आस्तां तावद् साक्षात्कृतद्रव्यपर्याय निकायो भवान् । यावदेतान्यपि कुवादिकुरङ्गसन्त्रासनसिंहनादाः कुवादिनः कुत्सितवादिनः । एकांशग्राहकनयानुयायिनोऽन्यतीथिकास्त एव संसारवनगहनवसनव्यसनितया कुरङ्गा मृगास्तेषां सम्यक्त्रासने सिंहनादा इव सिंहनादाः । यथा सिंहस्य नादमात्रमध्याकर्ण्य कुरङ्गाखास मासूत्रयन्ति, तथा भवत्प्रणीतैवंप्रकारप्रमा॒णवचनान्यपि श्रुत्वा कुवादिनस्त्रस्तुतामनुवते प्रतिवचनप्रदानकातरतां विभ्रतीति यावत् । एकैकं त्वदुपज्ञं प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छेदकमित्यर्थः ॥ अत्र प्रमाणानि इति बहुवचनमेवजातीयानां प्रमाणानां भगवच्छासने आनन्त्यज्ञापनार्थम् एकैकस्य सूत्रस्य सर्वोदधिसलिलसर्व सरिद्वालुकानन्तगुणार्थत्वात् तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया प्रमाणत्वात् । अथवा “इत्यादिबहुवचनान्ता गणस्य संसूचका भवन्ति” इति न्यायाद् इतिशब्देन प्रमाणबाहुल्यसूचनात् पूर्वार्द्ध एकस्मिन् अपि प्रमाणे उपन्यस्ते उचितमेव बहुवचनम् ॥ इति काव्यार्थः ||२२|| अनन्तरमनन्तधर्मात्मकत्वं वस्तुनि साध्यं मुकुलितमुक्तम् । तदेव सप्तभङ्गीप्ररूपणद्वारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं च स्तुवन्नाह - 'अनन्त धर्मात्मक' शब्द में आत्मा शब्दसे अनंत पर्यायोंमें रहनेवाले नित्य द्रव्यका सूचन होता है । अतएव “उत्पाद, व्यय और प्रोव्य हो 'सत्' का लक्षण है ।" पदार्थोंकी तरह शब्दोंमें भी उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, विवृत, संवृत, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण आदि तथा पदार्थोंके ज्ञान करानेकी शक्ति आदि अनन्त धर्म पाये जाते हैं । 'तत्त्वं अनंतधर्मात्मकं सत्त्वान्यथानुपपत्ते:' इस अनुमानमें जो 'सत्त्वान्यथानुपपत्ते:' हेतु दिया गया है उसके असिद्धत्व, विरुद्धत्व, अनैकांतिकत्व आदि दोषोंके परिहार पर स्वयं विचार करना चाहिये । हे भगवन् ! आपकी बात तो दूर रही, आपके न्याययुक्त वचन ही कुवादीरूपी हरिणोंको संत्रस्त करनेके लिये सिंहकी गर्जना के समान हैं । जिस प्रकार सिहकी गर्जनाको सुनकर जंगलके हरिण भयभीत होते हैं, उसी प्रकार आपके स्याद्वादका निरूपण करनेवाले वचनोंको सुनकर वस्तुके केवल अंशमात्रको ग्रहण करनेवाले, संसाररूपी गहन वनमें फिरनेवाले कुवादी लोग संत्रस्त होते है । एक एक विषयको खंडन करनेवाले बहुतसे प्रमाणोंका सूचन करनेके लिये श्लोक में ' प्रमाणानि ' बहुवचन दिया है; क्योंकि भगवान् के प्रत्येक सूत्र सम्पूर्ण समुद्रोंके जलसे और सम्पूर्ण नदियोंकी बालुकासे भी अनंतगुने हैं और वे सम्पूर्ण सूत्र सर्वज्ञ भगवान् के कहे हुए हैं, इसलिए प्रमाण हैं । अथवा "इति, आदि बहु वचनवाले शब्दसमूहके सूचक होते हैं" इस न्यायसे 'इति' शब्दसे बहुतसे प्रमाणोंका सूचन होता है, अतएव श्लोकके पूर्वार्धमें एक प्रमाणका उल्लेख करनेपर भी बहुवचन समझना चाहिये | यह श्लोका अर्थ हैं ||२२|| भावार्थ - इस श्लोक में प्रत्येक वस्तुको अनंत धर्मवाली सिद्ध किया गया है । जैन सिद्धांत के अनुसार यदि पदार्थोंमें अनंत धर्म स्वीकार न किये जाय, तो वस्तुको सिद्धि नहीं हो सकती अतएव, 'प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, क्योंकि वस्तुमें अनंत धर्मं माने बिना वस्तुमें वस्तुत्व सिद्ध नहीं हो सकता । जो अनन्त धर्मात्मक नहीं होता, वह सत् भी नहीं होता। जैसे आकाश ।' अतएव जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सम्पूर्ण द्रव्योंमें अनन्त धर्म स्वीकार करने चाहिये । वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं, इसीको सात भंगों द्वारा प्ररूपण करते हुए भगवान्‌के निरतिशय वचनाति - शयकी स्तुति करते हुए कहते हैं
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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